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● साध्वी सुरेखा श्री
- समर्थ नहीं है । वह शब्दरूप गंधरूप, रसरूप, और स्पर्शरूप नहीं है । स्पष्ट है कि आत्मा का स्वरूप इंद्रियागोचर होने से इ ंद्रियागम्य है । उपनिषदों में जिस प्रकार 'नेति नेति' कहकर संबोधित किया है, उसी प्रकार शुद्धात्म स्वरूप का विवेचन भी नहीं किया जा सकता । नित्यानित्य आत्मा का स्वरूप जैन दर्शन का मौलिक चिंतन है । जो आत्मा है, वही विज्ञाता हैं । जो विज्ञाता है, वही आत्मा है । जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप जाना जाता है, वही ज्ञान आत्मा का गुण हैं । उस ज्ञान के आश्रित ही आत्मा की प्रतीति होती है । जो आत्मा और ज्ञान के इस संबंध को जानता है, वहीं आत्मवादी है और उसका संयमानुष्ठान सम्यकूं कहा गया है । "
- शुद्धात्म स्वरूप की प्रतीति, अनुभव हो सकता है । जो आत्मवादी है वहां झाता है। ऐसा यहाँ स्पष्ट निर्देश है ।
'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना का साङ्गोपाङ्ग वर्णन यहाँ मिलता है - जिसे तू मारने विचार कर रहा है, वह तो तू स्वयं है, जिस पर तू हुकूमत चलाने का विचार करता है, वह भी तू स्वयं है । जिसे तू दुःखी करना चाहता है, वह तू स्वयं है। जिसे तू पकडना चाहता है, वह तू स्वय है । जिसे तू मार डालना चाहता है, वह भी तू स्वयं ही है । यह विचार कर । सचमुच इस समझ से ही सत्पुरुष सभी जीवों के साथ मैत्री भाव कर सकते हैं 12
यहाँ कई व्यक्ति का करते है कि आत्मा तो नित्य हे अच्छेद्य है, अमेय है, अचल है, सनातन है । इसे शस्त्र नहीं छेद सकते, अग्नि जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकती, हवा सुखा नहीं सकती । जब यह शाश्वत तो उसकी हिंसा कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि यहां हिंसा का अर्थ आत्मा का व्यापादन नहीं बल्कि आत्म सलान शरीर का व्यापादन है । आत्मा का आधारभूत शरीर है । आत्मा का शरीर से विजीकरण ही हिंसा कहा है जा पायतानेनानित्यत्व पर आधारित होने से आत्मसिद्धि विवादास्पद नहीं हो पाती ।
इस प्रकार जैन चिंतन आत्मा की स्वयं सिद्धता, अनिर्वचनीयता पर प्रमुख रूप से निर्धारित हैं। जीव आत्मा या चेतना की सत्ता का प्रश्न महत्वपूर्ण होने पर भी यहाँ विवादा★ स्पद नहीं है ।
1. a
2.1.1
2 आचाराङ्ग : 15 से आयावाई, लोयावाई, कम्माबाई, किरिया वाई.
3. सूत्रकृताङ्ग : 2.5
4 आची., 1.1.6
5. आचा: 1.3
6. वही, 1.4