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________________ अंग सूत्र 'आचार' सापेक्ष जीवसिद्धि वर्षाकाल के मेघस्वर से तथा शिशिर ऋतु की वायु से इनमें अंकुर उत्पन्न होते है। अशोक वृक्ष के पल्लव और फूल की उत्पत्ति कामदेव के संसर्ग से स्खलित गतिवाली, चपलनेवाली सोलह शृगार सजी हुई युवती अपने नूपुर से शब्दायमान सुकोमल चरण से स्पर्श करती है, तब होती है । बकुल वृक्ष का विकास सुगधित मद के कुल्ले के सिचन से होता है। लाजवती वृक्ष हाथ के स्पर्श मात्र से संकुचित हो जाता है। 6 क्या ये सब क्रियाएँ ज्ञान के अभाव में संभव हो सकती है ? सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीशचंद्र वसु वैज्ञानिकने भी संसार में वनस्पति में चेतनता मानने के लिए बाध्य कर दिया है । उन्होंने अपने वैज्ञानिक साधनों के द्वारा यह प्रत्यक्ष कर दिया है कि वनस्पति में भी क्रोध, प्रसन्नता, राग, मोह, आदि भाव निहित है। उनकी तारीफ करने पर वह हास्य प्रकट करती है और गाली देने पर तथा निदा करने पर क्रोधित हाती दृष्टिगत हुई है । इस प्रकार वैज्ञानिक युग में वनस्पति की चेतनता के अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं । त्रस कायिक जीवों में अंडज, पातज, जरायुज, रसज, संस्वेदज समूछिम उदिभज औषपातिक प्राणियों के समूह को संसार कहा है। आचाराङ्ग में षड्जीवनिकायों में वायुकाय को सजीवता का अंत में उल्लेख किया है। वायु को सचेतन मानना यह भी जैन दशन की मौलिकता है। सामान्य प्रम में पृथ्वी अप, तेजस, वायु, वनस्पति और उस इस प्रकार आता है किन्तु यहाँ इस क्रम का उल्लंघन करके वायुकाय का वर्णन अंत में लिया है। इसका क्या कारण है ? इस शका का समाधान शीलांकाचार्य टीका में इस प्रकार करते हैं, परकाय में वायुकाय का शरीर चमचक्षु (आँख) से दिखाई नहीं देता है । जबकि अन्य पांचो का शरीर चक्षुगाचर है । इसी कारण वायुकाय का विषय अन्य पांचों की अपेक्षा दुर्बोध है । अतः यहाँ पर पहले उन पांचों का वर्णन करके अंत में वायु का विवेचन किया है । इस प्रकार अंग सूत्र आचाराङ्ग में षइजावानकाय का पृथक् पृथक् वणन करके जीव के अस्तित्व की सिद्धि की गई है । जैन दर्शन में जीव की सत्ता का विचार जिस सूक्ष्मता और गहनता से किया है, अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । जीव का लक्षण स्वरूप तथा वर्गीकरण यहाँ अहिंमा धर्म के पालन के परिप्रेक्ष्य में करके सूक्ष्मातिसूक्ष्म हिंसा का निषेध किया गया है । - आत्म स्वरूप की अनिर्वचनीयता, स्वयं सिद्धता व शुद्धता का निर्देश सुन्दर रीति से किया है कि, "शुद्धात्मा का स्वरूप बताने के लिए कोई भी शब्द समर्थ नहीं है | तक की यहाँ गति नहीं है । बुद्धि वहाँ तक नहीं जाती, कल्पना भी नहीं हो सकती । वह कम मलरहित प्रकाशरूप समग्र लेक का ज्ञाता है । वह न दीध' हैन छोटा है, न पड़ा है. न गोल है, न त्रिकोण है न चौरस है, न मडलाकार है न काला है, न नीला है न पीला है, न लाल है, न सफेद है, न सुगन्धवाला है, न दुग धवाला है न तीखा है न कडवा है न कसैला है. न खट्टा है, न मीठा है, न कठोर है, न सुकुमार है, न भारी है, न हल्का है, न डा है. न गम' है, न स्निाध है, न रूक्ष है, न शरीरधारी है, न पुनर्जन्मा है, न. आसक्त है, न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुसक है । वह ज्ञाता है, परिज्ञाता है । उसके लिए कई उपमा नहीं, वह अरूपिणी सत्ता वाला है । अवस्था रहित है, अतएव उसका वर्णन करने में कोई शब्द
SR No.520767
Book TitleSambodhi 1990 Vol 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1990
Total Pages151
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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