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________________ अंग सूत्र 'ओचार'- सापेक्ष जीवसिद्धि आकाश भी नहीं है । क्रिया कारिता के पश्चात् फल प्राप्ति भी उसे नहीं हो सकेगी, क्योकि प्रथम क्षग में वह क्रिया करेगा, उसका फल अवान्तर क्षण में मिल सकेगा । जब कि दसरा क्षग भी नष्ट हो जाने से उसका भोक्ता भी कौन होगा ? इस संगति से कृतनाश और अनिकल के दोष की संभावना रहेगी। क्योंकि कर्ता कोई और भोक्ता कोई और होगा । अतः आत्मा को सर्वथा क्षणिक न मानकर परिणामी नित्य मान्य किया है। सांख्य दर्शन आत्मा को का न मानकर भोक्ता मान्य करता है। जब स्वयवह कर्ता नहीं तो भोक्ता भी कैसे हो सकता है ? अकर्ता मानने पर भोक्ता मानना योग्य नहीं है और जब मोक्ता नहीं तो जन्ममरण स्वर्ग-नरक, पुण्य -पाप, इहलोक परलोक गमन भी संभव नहीं हो पावेगा । इसी से यहाँ कम वाद और क्रियावाद भी पुष्ट होता है। क्यों'क शुभाशुभ क्रिया की ओर कम वादी प्रेरित होता है | शुभ कार्यो में प्रवृत्ति और अशुभ कार्यो से निवृत्ति कर्मवादी करता है । यहाँ इस सूत्र से आत्मा के अस्तितत्व के साय कमबंध का भो विचार किया गया है । आत्म अनेकत्व की विचारणा का इसमें कथन हैं कि 'सति पाणा पुढे। सिया' अर्थात् सभी प्राणी पृथक पृथकू रूप से रहे हुर हैं । जबकि अद्धत वेदान्त की मान्यता है कि एक एव हि भूनारमा, भूने भूते व्यावस्थित ।। अर्थात स्वभावतः जीव एक है, परन्तु देहादि उआधियों के कारण नाना प्रतीत होता है । आचाराङ्ग में यहाँ इस मत का ख डन करते हुए उल्लेख है कि प्रत्येक प्राणी में पृथक् पृथक् आत्म अस्तित्व है। जबकि वेदान्त दशना. नुसार तो ब्रहा अर्थात् जीव एक ही है वही अंश सर्व भूतो में विद्यमान है। पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पति काय इनको एकेन्द्रिय प्राणी मानकर जीव सता का निर्देश करते हुए कथन है कि पृथ्वीकाय, अपकायक, ते उकाय, वायुकाय16 और वनस्पतिकायादि17 जीवों का अपलाप नहीं करना चाहिये तथैव आत्मा का भी अपलाप नहीं करना चाहिये । जो इनकी सजीवता में शंकाशील होकर अपलाप करता है, वह आत्मा के अस्तित्व का अपलाप करता है। जो आत्मा के अस्तित्व का निषेध करता है। वह इनकी सचेतनता का अपलाप करता है। स्पष्ट है जिस प्रकार हमें अपने आत्म-अस्तित्त्व का बोध होता है, उसी प्रकार इन षड् निकाय के जीवों के अस्तित्व व उनकी सचेतनता का बोध होता है। इन पृथ्वी काय के जीवों को वेदना का अनुभव कैसे होता है ? ऐसा पूछने पर समाधान किया गया है कि, 'जैसे जन्म से अन्वे, बहरे, लूले, लँगडे तथा अवयवहीन किसी व्यक्ति के कोई भाला दि द्वारा पाँव, रखने, पिण्डी, धुटने, जघा, कमर, नाभि, पेट, पांसली, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कन्धा, भुजा, हाथ, अंगुली, नत्र, गर्दन, दाढ़ी, होठ, दांत, जीभ, तालु, गाल, कान, नाक, आँख, मोह, ललाट, मस्तक इत्यादि अवयव छेदे तो उस अन्ध बधिर को वेदना होने पर भी वह व्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार एकेन्द्रिय पृथ्वीकाय के जीवों को अध्ययत वेदना होती है। जैसे कोई मनुष्य पर सहसा प्रहार कर उसे मूच्छित करके फिर मार डाले तो मूविस्था में उसे पीड़ा होती है, वैसे ही पृथ्वीकाय की वेदना समझनी चाहिये।"
SR No.520767
Book TitleSambodhi 1990 Vol 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1990
Total Pages151
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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