SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साध्वी सुरेखा श्री है । जो आत्मा के अस्तितत्व में विश्वास करता है, वह लाक कर्म और क्रिया से उपरत नहीं हो सकता । एकान्त आत्मवाद, एकान्त लोकवाद, एकान्त कर्मवाद एवं एकान्त क्रियावाद का यहाँ निषेध किया गया है । लेगकस्थित जीवात्मा कर्म हेतु क्रिया करता ही है । कर्म समारंभ हेतु क्रिया अनिवार्य है ! इसीलिए "मैंने किया, मैंने करवाया और करते हुए अन्य को अनुमोदन दूंगा, लोक में इतनी ही कर्मचध की हेतुरूप क्रियाएँ समझनी चाहिए 14 ऐसा उल्लिखित है । जीव का कर्म हेतु क्रिया का इससे निश्चय होता है । वस्तुत: एकान्त पक्ष मिथ्या है, समन्वित अनेकान्तवाद वस्तु-स्वरूप का सच्चा ज्ञान कराने में सहायक है । स्पष्ट है कि जैन दर्शन की भित्ति ओत्मवाद पर अधिष्ठित है । इस आत्मवाद के प्रश्न का दर्शन की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि कहा जाय तो अनुचित न होगा। क्योंकि आत्म सापेक्ष दृष्टि भारतीय चिन्तकों की रही है। इसी जिज्ञासा की झलक आचाराङ्ग में स्थल स्थल पर दृष्टिगत होती है। इसमें उल्लेख है, "इस संसार में एक-एक जीव को यह ज्ञान नहीं होता कि दिशा-विदिशाओं में संचरणशील कौन है ? आत्मा का पुनर्जन्म होता है या नहीं ? मैं कौन था और यहाँ से चलकर परलोक में कहाँ जाऊँगा ? क्या होऊँगा? फिर भी कई जीव अपनी विशिष्ट जातिस्मरणादि ज्ञानयुक्त बुद्धि से अथवा तीर्थङ्कर के कहने से या अन्य उपदेशकों से सुनकर यह जान लेता है कि दिशा विदिशाओं में गमन करनेवाला, भवान्तर में संचरण करनेवाला मैं हूँ । जा दश न आत्मा का सर्वव्यापी, नित्य, क्षणिक, और अकर्ता मानते हैं, उनके मत में आत्मा का भवान्तर में संक्रमण सिद्ध नहीं हो पाता | न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं । सर्वव्यापकत्व मानने पर जीव का भवान्तर में संक्रमण असिद्ध हो जाता है। उसमें कोई क्रिया भी घटित नहीं हो सकती । जब क्रिया का ही अभाव है, तो इहलोक और परलोक की व्यवस्था की संगति नहीं हो सकेगी । शुभा-शुभ कर्मों का फलानुभाव नहीं है। सकेगा। सांरव्य दश'न आत्मा का कूटस्थ नित्य के रूप में स्वीकार करता है । कूटस्थनित्यता मानने पर अनित्य पक्ष को हानि पहुंचती है। इससे भी भवान्तर संक्रान्ति, लोक व्यवस्था, कम एवं क्रिया की निष्ठा नहीं हो सकेगी । क्योंकि नित्य उसे कहा है जो 'अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरेक स्वभाव नित्यम्' जो कभी नष्ट न हो, उत्पन्न न हो, एक स्वभाव में स्थिर रहे वह नित्य है । इस प्रकार आत्म नित्यत्व स्वीकार करने पर नवीन शरीर का धारण करना पूर्व शरीर का त्याग नहीं हो सकेगा । जब जन्म मरण घटित नहीं होगा तो कर्म और क्रिया की व्यवस्था भी नहीं हो सकेगी। इस प्रकार यहाँ आत्मा की फूटस्थ नित्यता का निराकृत करके बौद्ध-दर्शन सम्मत क्षणभगवाद पर आत्मस्थिति का स्थापन भी अमान्य किया है। बौद्ध मतानुसार प्रत्येक पदार्थ क्षणमात्र अवस्थित रहता है और दूसरे क्षण में निरन्वय नष्ट हे। जाता है। यदि आत्मा की क्षणमात्र स्थिति व निरन्वयनाश माना जाय तो इहलोक परलोक, पुनर्जन्म तथा उसका अनुसन्धात्मक ज्ञान 'साह भी नहीं हो पावेगा ।' क्षणिक स्थिति में क्रिया भी संभावित नहीं है क्योंकि दूसरे क्षण में तो नाश हो जायेगा । अतः क्रियाकाल का
SR No.520767
Book TitleSambodhi 1990 Vol 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1990
Total Pages151
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy