SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल अर्धमागधी प्राकृत की लाक्षणिकताएँ कौन कौनसी ? अर्धमगध देश की जो भाषा थी या जिस भाषा में आधे मागधी भाषा के लक्षण ये उसे अर्धमागधी भाषा की संज्ञा दी गयी है। इस परंपरा को ध्यान में रखते हुए प्राकृत व्याकरण, प्राचीन पालि साहित्य, प्राचीन शिलालेखों, प्राचीन अर्धमागधी साहित्य, आगम साहित्य की हस्तप्रतों, चूर्णि आदि में उपलब्ध अर्धमागधी के प्राचीन तत्त्वों के आधार से मूल अर्धमागधी की अपनी विशेषताएँ निश्चित की जा सकती हैं जो अर्धमागधी साहित्य के प्राचीन अंशों (विषय-वस्तु, शैली एवं छन्द के आधार से निर्धारित) के सम्पादन में पथ-प्रदर्शक बन सकती हैं। अपनी अल्पज्ञ मति (विद्वानों द्वारा सम्मान की अपेक्षा रखते हुए) के अनुसार उन लाक्षणिकताओं को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है : इन विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए भी सम्पादन के लिए पाठों का चुनाव काल्पनिक नहीं होना चाहिए परंतु जो आधारभूत सामग्री बनायी जाय उसमें से किसी एक प्रति में भी यदि प्राचीन रूप मिले तो उसे स्वीकार्य माना जाना चाहिए । आल्सडर्फ महोदय ने अन्य सन्दर्भ में प्राचीन प्राकृत साहित्य के सम्पादन में एक महत्त्वपूर्ण पद्धति अपनायी है । उनकी पद्धति के अनुसार कोई भी पद्य छन्दोबद्ध होना चाहिए और उसके लिए अन्य सभी प्रतियों के पाठ एक समान होते हुए भी यदि किसी एक प्रति का पाठ (चाहे वह प्राचीन प्रति हो या अर्वाचीन प्रति हो) अलग होते हुए भी छन्द की दृष्टि से उपयुक्त हो तो उसे ही स्वीकृत किया जाना चाहिए और अमुक अवस्था में छन्द को व्यवस्थित करने के लिए किसी शब्द में मात्रा जोड़नी पड़े या घटानी पड़े या एक वर्ण जोड़ना पड़े या छोड़ना पड़े तो भी सम्मिलित रूप में सभी आदर्शो के एक मात्र पाठ के प्रतिकूल भी जाना पड़े तो जाना चाहिए, चाहे ग्रंथ की टीका का पाठ भी इस प्रकार के स्वीकार्य पाठ का अनुमोदन न भी करता हो । इसी पद्धति के अनुसार क्या भाषा का प्राचीन रूप ही स्वीकृत नहीं किया जाना चाहिए जबकि वह प्राचीन प्रत में या अर्वाचीन प्रत में या नियुक्ति या चूर्णी मात्र में ही मिलता हो । : मागधी और पैशाची दोनों ही प्राचीन प्राकृत भाषाएँ मानी गयी हैं अतः उनके कुछ लक्षण यदि अर्धमागधी साहित्य में कहीं पर मिलें तो उन्हें निकाल कर दूर नहीं किया जाना चाहिए । सम्पादन योग्य भाषाकीय मुद्दे :--- 1. यकार से प्रारंभ होने वाले संस्कृत के अध्ययों में यदि य के बदले में अमिले तो उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए । 2. मध्यवर्ती सभी अल्प प्राण व्यंजनों का महाराष्ट्री प्राकृत की तरह प्रायः लोप नहीं किया जाना चाहिए । (स्वर प्रधान पाठ गेय होने के कारण मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति को पुष्टि मिली है इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता ।) 3. मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजनों के बदले में प्रायः ह ही अपनाया जाना चाहिए यह भी उचित नहीं है। 4. मध्यवर्ती क या उसके बदले में ग को और मूल ग. को यथावत् रखने में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
SR No.520766
Book TitleSambodhi 1989 Vol 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1989
Total Pages309
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy