________________
(२) इस वर्ग में अकलंक और माणिक्यनन्दी की अनधिगत, अविसंवादि और अपूर्व लक्षणवाली परिभाषाएँ आती है। ये लक्षण स्पष्ट रूप से बौद्ध और मीमांसकों के प्रभाव से आये हैं । ज्ञातव्य है कि न्यायावतार में बाधविति ' रूप में अविसवादित्व का लक्षण आ गया है।
(३) तीसरे वर्ग में विद्यानन्द, अभयदेव, और वादिदेवसुरि के लक्षणवाली पारिभाषाएँ आती हैं जो वस्तुत: सिद्धसेन (सिद्धर्षि) और समन्तभद्र के लक्षणे का शब्दान्तरण मात्र है और जिनमें अवभास पद के स्थान पर व्यवसाय या निर्णिति पद रख दिया गया है ।
(४) चतुर्थ वर्ग में आचार्य हेमचन्द्र की प्रमाणलक्षण की परिभाषा आती हैं, जिसमें 'स्व' बाधविवर्जित, अनधिगत या अपूर्व आदि सभी पद हटाकर परिकार किया गया है ।
यद्यपि. यह ठीक है कि हेमचन्द्रने अपने प्रमाणलक्षण निरूपण में नयी शब्दावलि का प्रयोग किया है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंने अपने पूर्व के जैनाचार्यो के प्रमाण-लक्षणों को पूरी तरह से छोड दिया है । यद्यपि इतना अवश्य है कि हेमचा द्रने दिगम्बराचार्य विद्यानन्दी और श्वेताम्बराचाय अभयदेव और वादिदेवसुरि का अनुसरण करके अपने प्रमाणलक्षण में अपूर्व पद को स्थान नहीं दिया है। प. सुखलालजी के शब्दों में उन्होंने 'स्व' पद, जो सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्यो की परिभाषा में था, निकाल दिया। साथ ही अबभास, व्यवसाय आदि पदो को स्थान न देकर अभयदेव के निर्णित पद के स्थान पर निर्णय पर दाखिल किया ११ और उमास्वाति, धर्मकीर्ति, भासर्वज्ञ आदि के 'सम्यक' पद को अपनाकर 'सम्यगर्थनिर्णय: प्रमाणम्' के रूप अपना प्रमाणलक्षण प्रस्तुत किया । इस परिभाषा या प्रमाण-लक्षण में 'सम्यक्' पद किसी सीना तक पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रयुक्त बाध विनि या अंविसंवादे का पर्याय माना जा सकता है। 'अर्थ' शब्द का प्रयोग जहाँ बौद्धों के विज्ञानवादी दृष्टिकोण का खण्डन करते हुए प्रमाण के 'पर' अर्थात् वस्तु के अवबोधक होने का सूचक है, जो जैनों के वस्तुवादी (Realistic) दृष्टिकोण का समर्थक भी है। ... पुनः 'निर्णय' शब्द जहाँ एक और अवभास, व्यवसाय आदि का सूचक हैं, वहीं दूसरी और वह प्रकारान्तर से प्रमाण के 'स्वप्रकाशक' होने का भी सूचक है। इस प्रकार प्रमाण लक्षण निरूपण में अनधिगतार्थक या अपूर्वार्थग्राहक होना ही ऐसा लक्षण है, जिसका हेमचन्द्रने पूर्ववर्ती श्वेताम्बर आचार्यों के समान परित्याग किया है। वस्तुतः स्मृति को प्रमाण माननेवाले जैनाचार्यों को यह लक्षण आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ । श्वेताम्बर परम्परा ने तो उसे कभी स्वीकार ही नहीं किया। दिगम्बर परम्परा में भी अकलंक और माणिक्यनन्दी के पथात वेद्यानन्दी ने इसका परित्याग कर दिया। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अपने पूर्वाचाय' के दृष्टिकोणों का सम्मान करते हुए और उनके प्रमाण-लक्षणों को सन्निविष्ट करते हुए प्रमाणमीमांसा में 'प्रमाण' की एक विशिष्ट परिभाषा प्रस्तुत की है।
११ प्रमाणमीमांसा (पं. सुखलालजी), भाषा टिप्पणानि पृ०७ '१. वही (मूलप्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीका) १/१/३ पृ. ४