SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिभाषा में बाधविवर्जित अधिसंवादित्व का ही पर्याय है । जैन परम्परा में यह लक्षण बौद्ध परम्परा के प्रभाव से गृहीत हुआ है जिसे अष्टशती आदि ग्रन्थों में स्वीकार किया गया है 17 इसी प्रकार मीमांसको के प्रभाव से अनधिगतार्थक होना या अपूर्व होना भी जैन प्रमाण लक्षण में सन्निविष्ट हो गया । अकलंक और माणिक्यनन्दीने इसे भी प्रमाणलक्षण के रूप में स्वीकार किया है । इस प्रकार जैन परम्परा में हेमचन्द्र के पूर्व प्रमाण के चार लक्षण निर्धारित हो चुके थे— (१) स्वप्रकाशक - 'स्व' की ज्ञानपर्याय का बोध ( २ ) पर - प्रकाशक पदार्थ का बोध ( 3 ) बाधविवर्जित या अविसंवादि ( ४ ) अमधिगतार्थक या अपूर्व (सर्वथा नवीन ) इन चार लक्षणों में से 'अपूर्व'' लक्षण का प्रतिपादन माणिक्यनन्दी के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में भी नहीं देखा जाता है । विद्यानन्द ने अकलक और माणिक्यनन्दी की परम्परा से अलग होकर सिद्धसेन और समन्तभद्र के तीन ही लक्षण ग्रहण किये । श्वेताम्बर परम्परा में किसी आचार्यने प्रमाण का 'अपूर्व'' लक्षण प्रतिपादित किया हो ऐसा हमारे ध्यान में नहीं आता है । यद्यपि विद्यानन्दी ने माणिक्यनन्दी के 'अपूर्व'' लक्षण को महत्वपूर्ण नहीं माना, किन्तु उन्होंने 'व्यवसायात्मकता' को आवश्यक समझा । परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों ने भी विद्यानन्वी का ही अनुसरण किया है । अभयदेव, वादिदेवसूरि और हेमचन्द्र सभी ने प्रमाणलक्षण निर्धारण में 'अपूर्व' पद को आवश्यक नहीं माना है । जैन परंपरा में हेमचन्द्र तक प्रमाण की जो परिभाषाएँ दी गई, उन्हें प. सुखल, लजी ने चार वर्गों में विभाजित किया है— (1) प्रथम वर्ग में स्वपर अवभास वाला सिद्धसेन (सिद्धर्षि 210) और समन्तभद्र का लक्षण जाता है । स्मरण रहे कि ये दोनों लक्षण बौद्धों एवं नैयायिकों के दृष्टिकोणों के समन्वय का फल है । ६ प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमर्थक्रियास्थितिः । - प्रमाणवार्तिक, २/ ७ प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् - 1 अष्टशती / अष्टसहस्त्री पृ. १७५ (उद्धृत प्रमाणमीमांसा टिप्पण पृ. ६) ८ (अ) अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् । वही (ब) स्वापूर्वार्थव्यावसायत्मकज्ञानं प्रमाणम् । परीक्षामुख, १/ ९, प्रमाणमीमांसा - (पं. सुखलालजी), भाषाटिप्पणानि, पृ. ७ १०. ज्ञातव्य है कि प्रो. ढाकी के अनुसार 'न्यायावतार' सिद्धसेन की रचना नहीं है, जैसा कि पं. सुखलालजीने मान लिया था, अपितु उनके अनुसार यह सिद्धर्षि की रचना है ।
SR No.520765
Book TitleSambodhi 1988 Vol 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1988
Total Pages222
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy