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________________ प्रमाणमीमांसा का उपजीव्य आचार्य हेमचन्द्र का प्रमाण मीमांसा नामक यह मन्थ भी इसी क्रम में हुए जेन न्याय के विकास का एक चरण है । यद्यपि प्रमाण मीमांसा एक अपूर्ण ग्रन्थ है । न तो मूल ग्रन्थ ही न उसकी वृत्ति पूर्ण है । उपलब्ध मूल सूत्र १०. हैं और इन्हीं पर वृत्ति भी उपलब्ध है। इसका तात्पर्य यही है कि यह ग्रन्थ आचार्य हेमचन्द्र अपने जीवन काल में पूर्ण नहीं कर सके । इसका फलित यह है कि उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम चरण में ही इस कृति का लेखन प्रारम्भ किया होगा । यह मन्थ भी कणाद सूत्र या वैशेषिक सूत्र, ब्रह्मसूत्र अथवा तत्त्वार्थ सूत्र की तरह सूत्र शैलीका ग्रन्थ है । फिर भी इस मन्थ की वर्गीकरण शैली भिन्न ही है । आचार्य की योजना इसे पाँच - अध्यायों में समाप्त करने की थी और वे प्रत्येक अध्याय को दो दा आह्निकों में विभक्त करना चाहते थे, किन्तु आज इसके मात्र देा अध्याय अपने दो दे। आह्निकों के साथ उपलब्ध है । अध्याय और आह्निक का यह विभाग क्रम इसके पूर्व अक्षपाद के न्याय सूत्रों एवं जैन परम्परा में अकलंक के ग्रन्थो में देखा जाता है। अपूर्ण होने पर भी इस मन्थ की महत्तान मल्यवत्ता अक्षुण्ण बनी हुई है । आ० हेमचन्द्र ने इस नन्थ के लेखन में अपनी परमपण और अन्य दार्शनिक परम्पराओं के न्याय सम्बन्धी ग्रन्थों का पूरा अवलोकन किया है। 4. सुखलालजी के शब्दों में आगमिक साहित्य के अतिविशाल खजाने के उपरान्त तत्त्वार्थ से लेकर 'स्याद्वादरत्नाकर' तक के संस्कृत तार्किक जैन साहित्य की भी बहुत बड़ी राशि हेमचन्द्र के परिशीलन पथ में आई, जिससे हेमचन्द्र का सर्वाङ्गीण सर्जक व्यक्तित्व सन्तुष्ट होने के बजाय एक ऐसे नये सर्जन की ओर प्रवृत्त हुआ, जो अब तक के जैन वाङ्मय में अपूर्व स्थान रख सके । वस्तुतः नियुक्ति, विशेषावश्यक भाष्य, तत्त्वार्थ और उसका भाष्य जैसे आगमिक ग्रन्थ तथा सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, माणिक्यनन्दी और विद्यानन्द की प्राय: समग्र कृतियाँ इसकी उपादान सामग्री बनी है। पं० सुखलालजी की मान्यता है कि प्रभाचन्द्र के "प्रमेयकमलमार्तण्ड', अनन्तवीर्य की 'प्रमेयरत्नमाला' और वादिदेव के 'स्याद्वादरत्नाकर' इसमें स्पष्ट उपयोग हुआ है । फिर भी उनकी दृष्टि में अकलङक और माणिक्यनन्दी मार्गानुगमन प्रधानतया देखा जाता है । इसी प्रकार बौद्ध और वैदिक परम्परा के वे सभी ग्रन्थ, जिनका. उपयोग उनकी कृति की आधारभूत पूर्वाचार्यो की जैन न्याय की कृतियों में हुआ है, स्वाभाविक रुप से उनकी कृति के आधार बने हैं । पुनः वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि बौद्ध परम्परा के दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अचट और शान्तिरक्षित तथा वैदिक परम्परा के कणाद, भासर्वज्ञ, व्योमशिव, श्रीधर, अक्षपाद, वात्सायन, उद्योतकर, जयन्त, वाचस्पति मिश्र, शबर, प्रभाकर और कुमारिल की कृतियां उनके अध्ययन का विषय रही है । वस्तुतः अपनी.परम्परा के और प्रतिपक्षी बौद्ध एवं वैदिक परम्परा के इन विविध ग्रन्थों के अध्ययन के परिणाम स्वरूप ही हेमचन्द्र जैनन्याय के क्षेत्र में एक विशिष्ट कृति प्रदान कर सके । वस्तुतः हेमचन्द्र का इस कृति की आवश्यकता क्यों अनुभूत हुई ? जब उनके सामने अभयदेव का 'वादार्णव' . १ प्रमाणमीमांसा सं.पं. सुखलालजी, प्रस्तावना '१६.' २ देखें वही-पृ. १७
SR No.520765
Book TitleSambodhi 1988 Vol 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1988
Total Pages222
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
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