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________________ प्रमाण - लक्षण-निरुपण में प्रमाणमीमांसा का अवदान - प्रो. सागरमल जैन जैन न्याय का विकास न्याय एवं प्रमाण चर्चा के क्षेत्र में सामान्य रूप से जैन दार्शनिक फेंका और विशेषरूप से आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थ प्रमाणमीमांसा का क्या अवदान है, यह जानने के लिए जैन न्याय के विकासक्रम को जानना आवश्यक है । यद्यपि जैनोंका पञ्चज्ञान का सिद्धान्त पर्याप्त प्राचीन है और जैन विद्या के कुछ विद्वान उसे पार्श्व के युग तक ले जाते हैं, किन्तु जहां तक प्रमाण - विचार का क्षेत्र है, जैनों का प्रवेश नैयायिकों, मीमांसकों और बौद्धौ के पश्चात ही हुआ है । प्रमाण चर्चा के प्रसंग में जैनों का प्रवेश चाहे परवर्ती हो, किन्तु इस कारण वे इस क्षेत्र में जो विशिष्ट अवदान दे सके हैं, वह हमारे लिए गौरव की वस्तु है । के इस क्षेत्र में परवर्ती प्रवेश का लाभ यह हुआ कि जैनों ने पक्ष और प्रतिपक्ष के सिद्धान्तों गुण दोषों का सम्यक् मूल्यांकन करके फिर अपने मन्तव्य को इस रूप में प्रस्तुत किया कि वह पक्ष और प्रतिपक्ष की तार्किक कर्मियों का परिमार्जन करते हुए एक व्यापक और समन्वयात्मक सिद्धान्त बन सके। पं० सुखलालजी के अनुसार जैन ज्ञान-मीमांसा ने मुख्यतः तीन युगों में अपने क्रमिक विकास का पूर्ण किया है १ आगमयुग, २ अनेकान्त स्थापन युग और ३ न्यायप्रमाण स्थापन युग । यहाँ हम इन युगों की विशिष्टताओं की चर्चा न करते हुए केवल इतना कहना चाहेंगे कि जैनों ने • अपने अनेकान्त-सिद्धान्त को स्थिर करके फिर प्रमाण विचार के क्षेत्र में कदम रखा । उनके इस परवर्ती प्रवेश का एक लाभ तो यह हुआ कि पक्ष और प्रतिपक्ष का अध्ययन कर के उन दोनों की कमियों और तार्किक असंगतियों को समझ सके तथा दूसरे पूर्व-विकसित उनकी अनेकान्त दृष्टि का लाभ यह हुआ कि वे उन दोनों के मध्य समन्वय स्थापित कर सके । उन्होंने पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच समन्वय स्थापित करने का जो प्रयास किया उसी में उनका सिद्धान्त स्थिर हो गया और यही उनका इस क्षेत्र में विशिष्ट अवदान कहलाया । इस क्षेत्र में उनकी भूमिका सदैव एक तटस्थ न्यायाधीश की रही । उन्होंने अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्तों की समीक्षा के माध्यम से सदैव अपने को समृद्ध किया और जहाँ आवश्यक लगा, वहाँ अपनी पूर्व मान्यताओं को भी संशोधित और परिमार्जित किया । चाहे सिद्धसेन हो या संमन्तभद्र, अकलंक हो या विद्यानन्दी, हरिभद्र हो या हेमचन्द्र सभी ने अपने ग्रन्थों के निर्माण में जहाँ अपनी परम्परा के पूर्वाचार्यों के मन्थों का अध्ययन किया, वही अन्य परम्परा के पक्ष और प्रतिपक्ष का भी गम्भीर अध्ययन किया। अत: जैन न्याय या प्रमाणविचार स्थिर न रहकर गतिशील बना रहा । वह युगयुग में परिष्कारित, विकसित और समृद्ध होता रहा ।
SR No.520765
Book TitleSambodhi 1988 Vol 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1988
Total Pages222
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
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