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गौरी मुकर्जी
विषयता है । लेकिन ज्ञान में कर्मव या आश्रयत्व के न होने से उसमें ऐसी विषयता नहीं है, फिर भी प्रमाणजन्य अन्तःकरण की वृत्ति की विषयता मानने पर भी स्वप्रकाशता बाधित नहीं होती क्योंकि वृत्ति में प्रकाश्यत्व नहीं होता अपितु वह प्रमाणजन्य - वृत्तिविशेष उसका होती है।
यहाँ यह भी आपत्ति होती है कि वृत्ति व्याप्यता मात्र ही प्रमाण नहीं है भविषु घटादिवत् फलव्याप्यता भी प्रमाण में होना आवश्यक है । किन्तु यह कथन निमूल है क्योंकि बलव्याप्यता एवं प्रामाणिकता को तितो नलेखित व्याप्त नहीं कर सकती यह नहीं कहा जा सकता है कि यहीं नहीं है यहाँ वहाँ प्रामाणिकता भी नहीं है, फिर भी वे प्रमाणिक ही माने जाते हैं । और भी प्रमाणवेद्य होना स्वप्रकाशता नहीं है वरन् अपने अपरोक्ष व्यवहार में अन्य प्रकाश की निरपेक्षता ही स्वप्रकाशता है तथा यह स्वप्रकाशत्व साधक प्रमाणगम्य होने पर भी उसका बाघ नहीं है क्योंकि वह प्रमाणान्तर निरपेक्ष होकर अपने आश्रय ( पुरुष ) में स्वविषयक अपरोक्ष व्यवहार उत्पन्न कर लेता है ।
अतः अनुभूति स्वयं प्रकाशा
अनुमान में समस्त शंकाओं का अवकाश हो जाने से यही स्वप्रकाश के लिए निदुष्ट प्रमाण गृहीत हो जाता है। केवल व्यतिरेकी अनुमान के व्यतिरिक्त अन्वयव्यतिरेकी अनुमान की भी उपस्थापना अनुभूति को स्वप्रकाश प्रमाणित करने के लिए कि जाती है। ऐसा इसलिए कि विपक्षी कहीं यह न कह सके कि मात्र एक अनुमान से नहीं अनुभूति को स्वप्रकाशता प्रमाणित की गयी। विस्तार के भय से अन्वयव्यतिरेकी की चर्चा छोड़ो जा रही है परन्तु दो दो प्रवल अनुमानों की उपस्थापना के उपरान्त अब कोई यह कैसे कह सकता है कि अनुभूति (या ज्ञान) स्वयंप्रकाश होने से और भरमा ज्ञानस्वरूप होने से आत्मा ही स्वयंप्रकाश है इसमें तनिक मात्र भी सन्देह नहीं रह जाना चाहिए ।
पाठ- टिप्पण
1. ग्वाम 1-10.
2. प्रमाणवार्तिक 2.321.
3. बृहती पृ. 74.
4. दास्तानोपस्थापत्
नामापासून 418.19
5. मतिः।
6.
fer g. 157.
परिणाममनः ।
7
-रिका-57.
8.मानः पक्षयतिपदायादः
-न्यायसूत्र अ । आ. 2 सूत्र ।
9 यथोक्ता स्पन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानोपालम्भो जल्पः ।
वही भ. । आ. 2. सू 2.