________________
चित्सुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा
प्रमाणित कर देते हैं । स्वयं प्रकाश के लिए दिया गया केवलव्यतिरेकी अनुमान (अनुभूति : स्वयंप्रकाशा.........) के साक्ष्य एवं पक्ष को निर्दुष्टता को पहले ही प्रमाणित कर चुके हैं अतः उक्त केवल व्यतिरेकी अनुमान को पूर्ण निदुष्ट एवं यथार्थ ज्ञान को जनक घोषित करने में पूरा बल मिल जाता है ।
ऊपर दिये गये सारे तर्कों के बाद भी चूकि नैयायिक को भवेद्य है (अनुभूति) उसकी स्वकाशता को नहीं स्वीकार करना चाहते अत: पुनः यह कहते हैं कि यह सही है कि उक्त अनुमान में किसी भी प्रकार का देष नेर्देश नहीं हो पा रहा है परन्तु उक्त अनुमान से'' वैसे ही अनुमान को आभास हो रहा है वैसे "बटः स्वयंप्रकाशः घटावात् यन्नैवं तन्नैवं यथा परः" " अनुमान से अनुमान का आभास ही होता है वास्तविक अनुमान नहीं । लेकिन ऐसा कहना सर्वथा भूल है । घर शब्द को दो अर्थ में लिया जा सका है। (1) विशेष आकारमाला लोक में प्रसिद्ध घट (2) किसी लोकोत्तर में प्रसिद्ध घर रूप पक्ष को प्रथम अथ में ग्रहण किया जाय तो उसका स्वयंप काश होना प्रत्यक्ष प्रमाण (देखे जाना या स्पर्श करना) से ही . बाधित हो जाता है अर्थात् लोक में प्रसिद्ध घर को कोई देवकर या छु कर बता सकता है, वह स्वयंप्रकाश नहीं है वरन् दूसरे से प्रकाशित है। घट रूपी पक्ष का दूसरा कर भी युक्त नहीं है क्योंकि वह घट प्रत्यक्ष का विषय न होने से अप्रसिद्ध ही है। और इस प्रकार
आश्रयासिद्धि का दोष निरूपित होगा । जैसे लोकोत्तर वाला घट (प्रत्यक्ष का विषय न होने) अप्रसिधि है वैसे ही अवेद्य अनुभूति अप्रसिधि हैं, कहना है, दोषपूर्ण है ऐसा इसलिए कि अनुभूति को प्रसिधि न्याय एवं वेदान्त (जिसकी चर्चा हो चुकी है) दोनों के यहाँ है वह वेद्य है या अवेध है इसी में विवाद है या यह भी कहा जा सकता है कि अवेद्य अनुभूति रूपी धर्म की प्रतिधि होते हुए भी उसके धर्माध (वेद्यता अथवा अवेद्यता) को लेकर दोनों में मतभेद है । अतः अनुभूतिः स्वयं प्रकाश अनुमान का अनुमानाभास कहना सर्वथा अनवकाश होने से यह अनुभूति घों में स्वप्रकाशत्व धर्म का प्रमाननकप्रमाण है।
किसी भी प्रकार अब वेदान्ती को परास्त करने में क्षम नहीं हो पाते हैं तब नैयायिक एक प्रचलतम तक प्रस्तुत करके स्वप्रकाशत्व के प्रतिपादक वदान्ती को उभयतः पाशरज्जु से जकड़ देने की चेष्टा करते हैं। तर्क निम्न रुप से प्रस्तुत किया जाता है-यदि स्वप्रकाशव के विषय में कोई प्रमाण नहीं है तब तो वह अप्रमाणित होने से विचारणीय नहीं है । दूसरी तरफ यदि उसके विषय में प्रमाण है (जैसा वेदान्ती देते हैं। तब उ प्रमाण से वेद्य हो जाने से उसकी (स्वप्रकाश की) स्वप्रकाशितता समाप्त हो जायेगी। यह तर्क वेदान्ती को उभयता पाशरज्जु में जकड़ने की चेष्टा मात्र है । इस पर विचार करने से इस तर्क के. कुक्षि में कितनी शक्ति है उसका परीक्षण हो जाता है । इस प्रकार की चेष्टा का एक मात्र कारण यही दिया जा सकता है कि अनुभूति के स्वरूप को नहीं समझा गया है । घट आदि पदार्थ प्रमाण जन्य स्फुरण जन्य ज्ञातता का आश्रय हैं जो भा मत है या झान का कर्महैं 'जो नैयायिको के अनुसार है। इसी आश्रयता या कर्मता के कारण ही घट आदि में