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________________ चिरसुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा (5) साधारण अनै कान्तिक-38 उपर्युक्त विरुद्ध दोष निवारण के सन्दर्भ में यह कहा गया था कि अनुभूतित हेतु वेद्य में नहीं रहती है वहाँ यह समझ लेना चाहिए कि वेद्यता विपक्ष होने से उससे उसकी ध्यावृत्ति हो जाती है। अतः साधारण अनैकान्तिक दोष का अवकाश नहीं रह जाता क्योंकि हेतु का पक्ष सपक्ष एवं विपक्ष में रहने के कारण ही इस प्रकार के दोष की उत्पत्ति होती है। (6) असाधारण भनेकान्तिक-39 केवल व्यतिरेकी अनुमान का कोई सपक्ष नहीं होता। अनु. भूतित्व के मात्र अनुभूति में रहने से उसकी सपक्ष से व्यावृत्ति नहीं कहा जा सकती है। अतः असाधारण अनेकानिक देष को निरस्त कर दिया जाता है। (7) सन्दिग्ध अनेकान्तिक या अनुपसंहारी40-अनुभूति को अनुभाव्य या वेद्य मानने पर अनवस्थादि अनिष्ट दोष की प्राप्ति होती है । इस तक के कारण (इसकी चर्चा पहले हो चुकी है) संदिग्ध अनेकान्तिकता का भी स्थान नहीं रहता । यहाँ यह कहा जा सकता है कि अनुभूति यदि वेद्य मानने पर अनवस्था दोष आता है तो उसे अवेद्य ही मान लिया जाए और उसी अज्ञात सत्ता से व्यवहार दोष आता है तो उसे अवेद्य ही मान लिया जाए और उसी अज्ञात सत्ता से व्यवहार भी चला लिया जाय तब तो सन्दिग्ध अनेकान्तिक दोष के बने रहने कई आपत्ति नहीं हो सकती, जैसा कि उदयन ने तात्पर्यपरिशुभिध में कहा है कि अशात सत्ता के विषय में जिज्ञासा होने पर उसके व्यवहार आदि ही हेतु बनाकर अनुमान किया जा सकता है। किन्तु यहाँ विचारणीय है कि प्रमाण के बिना सत्ता का निश्चय कैसे हो सकेगा । तथा सत्ता के निश्चित न होने से उस के विषय में व्यवहार ही कैसे बन सकेगा। जसे यह घट (व्यवसाय) और घट को जानने वाला हूँ (अनुव्यवसाय , यही दो अनुभूतियाँ अनुभव सिद्ध मानी जाती हैं, इनके अतिरिक्त तोसरी अनुभूति अनुभव में नहीं आती। और इस परम्परा को बिना तीसरी अनुभूति के (जिससे उसका ज्ञान हो) ही मान लेना पचेगा ऐसी स्थिति में किसी भी वस्तु का ज्ञान बिना किसी प्रमाण के मान लेने का सिद्धान्त ही बन जायगा । इसके विपरीत यदि अनुभूति परम्परा के ज्ञान के लिए तीसरी अनुभूति को मान लिया जाय तो पहले जैसा अनवस्था दोष आपन्न होगा । उपयुक्त दोनों कठिनाइयों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अनुव्यवसाय अपने विशेष स्वभाव से ही व्यवसाय का व्यवहार चला ले सकती है, ऐसी स्थिति में व्यवसाय को स्वभाव से ही अपना व्यवहार चला लेने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए, अतः पूर्वपक्ष के सारे तर्का को निरस्त कर अनु भूति को अनुभाव्य मानने पर अनवस्था दोष होगा " (8) चाधिनस्व- उस प्रबल विपक्ष बाधक तक की सहायता से सिध्धान्ती सन्दिग्ध अनै कान्तिक की परिसमाप्ति कर देते हैं। "मैं घरज्ञानवान् हूँ" "घट ज्ञात है" इस प्रकार के प्रत्यक्ष से अनुभूति में वेद्यस्व की प्रतीति होती है । अतः अनुभूतित्व हेतु (जिससे अवेद्यत्व माना गया है) बाधित हो जाती है, ऐसी शंका हो सकती है। किन्तु इस प्रकार का आक्षेप करना उचित नहीं है क्योंकि अनुभूति की स्वयंप्रकाशितता से भी उक्त व्यवहार हो सकता है । और भी "घरात है",
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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