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________________ ३२ गौरी मुकर्जी के कारण नहीं रह पाने से पक्षमता न बन पाने से स्वरूपासिथिद हो जाती है। इसको समाधान यह कह कर दिया जाता है कि जसे कल्पभेद से अनेक चन्द्रमाओं की कल्पना करके चंदत्य जाति मानी जाती है। उसी प्रकार उपाधि भेद से अनेक अनुभूतियाँ मानकर अनुभूतित्व जाति मानी जा सकती है । ऐसा करने से अद्वैत की हानि भी नहीं होगी और काल्पनिक अनुभूतित्व हेतु से स्वप्रकाश रूपी साध्य का साधन भी होगा जैसे काल्पनिक प्रतिबिम्ब अपने बिम्ब का साधक होता है । (3) व्याप्यावा सेदि३4-अनुभूतित्व हेतु में व्याप्यत्वासिध्दि नहीं है क्योंकि इस प्रकार की असिध्दि की प्राप्ति केवल सोपाधिक सम्बन्ध में ही संभव होती है। केवल व्यतिरेकी अनुमान में उपाधि संभव ही नहीं है । इसे उपाधि के लक्षण विश्लेषण से ही समझा जा सकता है। उपाधि का लक्षण साध्यव्यापकरवे सति साधनाव्यापकत्वम् 35 अर्थात् साध्य की व्यापकता होने से भी साधन की अध्यापकता का होना । यह स्वयं अन्वय व्यतिरेकी स्वभाव का है केवल व्यतिरेकी का सपक्ष न होने से साध्य की व्यापकता की सिधि का स्थान कौन सा होगा ! पक्ष (अनुभूति) नहीं हो सकता क्योंकि सन्दिग्ध साध्यवान् ही पक्ष कहलाता है । फिर भी यदि पक्ष में ही साप की सिधि मानी जाये तब तो अद्वैत वेदान्ती जिसके साधन के लिए इसी परिश्रम अब तक कर रहे थे (अनुभूति में स्वयं प्रकाशता का होना) उसी की सिधि हो जाती हैं, भले ही हेतु हज़ार उपाधि से युक्त हो । साधन का अव्यापक होना भी उपाधि के लिए आवश्यक है । किन्तु केवल व्यतिरेकी अनुमान में साधन पक्ष मात्र में ही रहता है । यदि पक्ष में ही उपाधि है तब वह साधन का भव्यापक नहीं हो पायेगी बहिक व्यापक होगी। अतः उपाधि पूर्णतः अनवकाश होने से व्याप्यवासिद्धि नहीं हो सकती। यदि उपाधि को साध्यसद्भाव (जहाँ साध्य की उपस्थिति हो) की सत्ता मानने में दोष आपन्न होता है तो उससे बचने के लिए साध्यामाव की सत्ता कहने में कोई आपत्ति नहीं उठानी चाहिए । लेकिन ऐसा मानने में स्वप्रकाशत्व रूप साध्य का अभाव वेद्यत्व होगा और “ भनुभूतिर्वद्या वस्तुस्वात् घटवम्" इस अनुमान से अनुभूति में वेद्यत्व की सिद्धि करनी होगी । जिससे " अनुभूति स्वयंप्रकाशा अनुभूतित्वात् " इस अनुमान में प्रयुक्त हेतु (अनुभूतित्व). साध्य (स्वयंप्रकाशत्व) का व्यभिचारी हो जायेगा। क्योंकि व्यभिचार 36 का अनुमान कराना ही उपाधि का प्रयोजन है । किन्तु " अनुभूनिर्वद्या वस्तुत्वात् घटवत्" इस अनुमान में वस्तुत्व रूप उपाधि से साध्याभाव (वेद्यत्व) का अनुमान किया जा रहा है। वस्तुत्व में उपाधिस्व संभव नहीं है क्योंकि केवलान्ययो धर्म में साधनाव्यापकत्व की उपपत्ति नहीं की जा सकती । अतः भनुभूतित्व हेतु असिद्ध नहीं है। (4) विरुद्ध 37- इस दोष की संभावना तब हो सकती थी जब अनुभूतित्व हेतु स्वयं प्रकाश रूपी साध्य के अभाव के स्थल पर होता.। जैसे घटमादि साध्याभाव स्थल है। किन्तु वहाँ अनुभूतित्व हेतुता है नहीं वह तो मात्र अनुभूति में ही है। अतः हेतु को विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है।
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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