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चित्सुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा
अर्थात् “ अवेद्य होते हुए भी जिसमें अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता हो”, यही स्व. प्रकाश का समीचीन लक्षण है । इस लक्षण के विश्लेषण के अवसर पर प्रश्न यह उठा था कि लक्षण में योग्यता शब्द स्वप्रकाश का धर्म है अथवा स्वरूप । सिद्धान्ती प्रथम विकल्प को ही स्वीकार कर के लक्षण में आये दोष का परिहार करते हैं । योग्यता को स्वप्रकाश का धर्म मानने से मोक्षकालीन आत्मा में अव्याप्ति का दोष दिखाया गया था। इस दोष का निराकरण अवेद्यत्वे स्वपरोक्षव्यहारयोग्यत्वात्यन्ताभावानाधिकरणत्वम् (जो अवेद्य होकर कभी भी अपरोक्ष व्यवहार योग्यता का अधिकरण हो वही स्वप्रकाश है) कहकर किया । जो कभी भी योग्यता का अधिकरण होगा वह योग्यत्वात्यन्ताभाव का अनधिकरण होगा ही, यह सिद्धान्त सभी को स्वीकार करना होगा । अन्यथा गुणवद् द्रव्यम् (गुण के अधिकरण को द्रव्य कहते हैं। यह द्रब्ध का लक्षण जिसे कणाद मुनि ने स्वीकर किया है-वह भी प्रथम क्षण में द्रश्य में गुण के न रहने के कारण अव्याप्ति दोष से ग्रस्त होगा । नैयायिक यह स्वीकार करते हैं कि उत्पन्न होकर द्रव्य प्रथम क्षण में निगुण एवं निष्क्रिय रहता है । प्रकृत में "गुणवद् द्रव्यम्" कहने का तात्पर्य होगा "गुणात्यन्ताभावानधिकरण द्रव्यम्"। उत्पत्ति काल में जो गुणाभाव होगा उसे अत्यन्ताभाव नहीं कह सकते: (क्योंकि न्याय में स्वीकृत दो अभाव18 अन्योन्याभाव व संसर्गाभाक मैं संसर्गाभाव का तीन विभाग किया गया है जो क्रमशः प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव (जिन्हें अनित्य माना गया है) व अत्यन्ताभाव21 (जिसे नित्य माना गया है)। यदि उत्पत्तिकालीन गुणाभाव को अत्यन्ताभाव कहें तो आगे गुणाभाव के प्रतियोगी गुण की उत्पत्ति होने से उस अभाव का नाश होगा अतः बिनाशी अभाव होने से वह प्रागभाव रूप हो जायेगा । प्रतियोगी की स्थिति के अनन्तर जो अभाव होता है वह भी अन्य अभाव होने से प्रध्वंसाभाव होगा, अत्यन्ताभाव नहीं । अत: यह मानना होगा कि कभी भो जो वस्तु किमी अधिकरण में रह जाती है वहाँ इसका अत्यन्ताभाव नहीं रह सकता, उसके प्रागभाव प्रध्वंसाभाव भले ही हो सकते हैं । गुण का अधिकरण कभी भी हो जाने पर द्रश्य में गुणात्यन्ताभाव की अधिकरणना नहीं' रहेगी । अतः गुणात्यन्ताभावाऽनधिकरण :-द्रव्य का लक्षण हो जाता है । इसी प्रकार अपरोक्ष व्यवहार योग्यत्व का अधिकरण संसार दशा में आत्मा के हो जाने पर मुक्ति दशा में व्यवहार न होने पर भी योग्यत्वात्यन्ताभावानधि करणत्व रहेगा ही अतः सुषुप्ति तथा मोक्षकालीन आत्मा में इस परिष्कृत लक्षण की अध्याप्ति नहीं कही जा सकती।
दूसरा दोष यह दिखाया गया था कि आत्मा में किसी प्रकार का धर्म माना द्वतापत्ति है । इसका परिहार यह कहकर किया जाता है कि संसार आत्मा में अज्ञानकल्पित साधकत्वादि धर्म माना हो जाता है। आचार्य के इस मत का समर्थन सुरेश्वराचार्य करते है पदमपाटिकाचार्य 23 विरुद्धसिद्धान्तस्य दोष के निराकरण का समर्थन यह कह कर करते हैं कि मोक्षकाल में उक्त धर्मों का अभाव होने पर भी संसार दशा में मानने के कारण उसे धर्मों के भी अत्यन्ताभाव का अनधिकरण माना जा सकता है।
योग्यता, स्वप्रकाश का धर्म है या स्वरूप, इन दोनों में से धर्म को ही स्वीकार कर