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________________ गौरी मुकर्जी एकादश लक्षण का विश्लेषण उसमें प्रयुक्त योग्यता शब्द से प्रारम्भ होता है। प्रदन यह उठता है कि योग्यता शब्द स्वकाश का धर्म है अथवा स्वरूप । यदि योग्यता स्वप्रकाश का धर्म है तो यह लक्षण मेशिकालीन आत्मा में अव्याप्ति के दोष से ग्रस्त है। जायेगा क्योंकि मेक्षिाकालीन आत्मा स्वप्रकाश होते हुए भी इसमें किसी प्रकार का धर्म नहीं माना जाता है। इसके अतिरिक्त धर्म मानने से धर्मी को भी मानना पड़ेगा जिससे तापत्ति भा जायेगी। अतः इन कठिनाइयों के कारण योग्यता को स्वप्रकाश का धर्म नहीं माना जा सकता। दूसरा विकल्प अर्थात् योग्यता का स्वप्रकाश का स्वरूप मानना भी दोषयुक्त है। क्योंकि आत्मा में व्यवहार निरूपणीयत्व आने से नित्य सप्रतियोगिक हो जायेगा । अर्थात् आत्मस्वरूप को निरुपकतया व्यवहार की अपेक्षा होगी (जसे हस्व को उसके प्रतियोगी दीर्घ की अपेक्षा होती है) जो तापत्ति के भय से अद्वैती स्वीकार नहीं कर सकते । अत: स्वप्रकाश का कोई लक्षण नहीं बन सकता । इन लक्षणों में यह क्रमिक दूषण दिया जा सकता है कि प्रथम लक्षण से वृत्ति ज्ञान में भी स्वप्रकाशत्व की सिद्धि होने से प्रवतानाकांक्षित का अभिधान होने से अर्थान्तररूप निग्रह स्थान के वारण के लिए द्वितीय लक्षण है । द्वितीय लक्षण में एक ही में क्रियाकर्मभाव होने से विरोध होगा अत: विरोधपरिहार के लिए तृतीय लक्षण है | तृतीय लक्षण की घटादि में अतिव्याप्ति होने से उसके वारण के लिए चतुर्थ लक्षण है । चतुर्थ लक्षण की अपने सत्ताकाल में प्रकाशमान सुख दुःख आदि में अतिव्याप्ति होने से तद्वारणार्थ पंचम लक्षण हैं। पंचम लक्षण की प्रदीप में अतिव्याप्ति होने से उसके वारणार्थ षष्ठ लक्षण है । आत्मा का आगमजन्य ज्ञान का विषय होने से यह लक्षण दोषग्रस्त है। किं वहुना १ लक्षण के शशविषाण आदि में चले जाने से इसके परिहार के लिए सप्तम लक्षण है । सप्तम लक्षण विशेष्य एवं विशेषण परस्पर विरोधी अर्थो का उपस्थापक होने से बदतोव्याघात होता है। अतः उसके निवारण के लिए अष्टम लक्ष॥ है । अख्यातिवादी के मत में रजतसंग में अतिव्याप्ति है अतः उसके परिहार के लिए नवम लक्षण है । स्वप्रतिबद्ध व्यवहार में विजातीय ज्ञान की अपेक्षा करने वाले प्रदीप में लक्षण की अतिव्याप्ति होने से तद्वारणार्थ दशम लक्षण है। दशम लक्षण को सुषुप्ति एवं मुक्तिकालीन आत्मा में व्यवहार न होने से अव्याप्ति होती है अतः उसके निवारण के लिए एकादशम लक्षण है। इस प्रकार प्रत्येक लक्षण के दोष दूसरे लक्षण से निराकृत हो जाते हैं । अतः एक एक लक्षण स्वयं खंडित हो जाते हैं। ग्यारहवें लक्षण में भी आत्मा में सप्रतियोगिक होने की आशंका व्यक्त की गयी है । भवती इसी अन्तिम लक्षण को सभी दोषों का निरासकर स्वप्रकाश का लक्षण सिद्ध करते हैं । अवती सम्मत स्वप्रकाश लक्षण ग्रन्थकार एकादश लक्षण को ही स्वप्रकाश का निदुष्ट रक्षण मानते हुए अपना सिद्धान्त. श्लोक देते हैं जो कि उनकी शैली है-- अपरोक्षव्यवहृतेोग्यस्याघीपदस्य नः । संभवे स्वप्रकाशस्य लक्षणासंभवः कुतः ।।
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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