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________________ १० अरविंद कुमार सिंह १९. वे राजा, जिन्हें उसने पराक्रम से उखाच दिया था, उसके द्वारा पुनः स्थापित किए गए जिनके शरीर पर कृपाण के व्यापार से बराबर चोर ल.ने से परे हुए घर मानों व लिपि रूपवत हों; ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे राज सभी दिशाओं में स्थित जगविजेता एवं शरणागतों की रक्षा में प्रति रखनेवाले (जयसिंह) के कीर्तिस्तम्भों के समान हो । २०. जिसकी कीर्ति, ब्राह्मणों के भवनों में लगी सुन्दर वंदनवारों से श्वेत मुक्तामालाओं सहित हास्य कर रही है, बन्दी राजाओं से प्राप्त हाथियों के सुगन्धित मद जलों से आकृष्ट भ्रमरों के गुंजार के रूप में गायन कर रही है, उसी प्रकार असंख्य देवमन्दिरों में लगी पताकाओं की फड़कन के रूप में नृत्य करती हुई वे मानो राजाओं को दान की दीक्षा दे रही हैं। २१. युद्ध में विजय तथा प्रचुर वैभव प्राप्ति के कारण स्थरूप सून और वीर (मन्त्री और सेनापति) के रूप में उसकी दो प्रकार की धाराएँ थीं । २२. भभिमान से उन्नत को मानहीन कर, अवन्तीपुर की रक्षा को नष्ट करके धारा (नगरी) को भी आत्मधारण में असमर्थ बनाकर श्रीविहीन मालयो के दुर्गों को सुगम बनाकर (आधिपत्य स्थापित फर) भी यह राजा नामों की सार्थकता को सहन नहीं करता था । २३. इस प्रकार अपनी भुजाओं से विजित मालव भूमि को प्रसन्नतापूर्वक देखता हुआ, भगवान् विरूपाक्ष को अनुचित जीण भवन में स्थित देखकर (उनकी पुनःस्थापना के द्वारा) पूजा करता हुआ जिसने फणिमणि के रूप में ललाट की आँख के रूप में, अग्नि सहित चन्द्रमा आदि प्रज्ञा से प्रकट प्रभु रूप को प्राप्त किया । २४. उसके बाद भक्तिपूर्वक ऐसे विशाल शिखर वाला प्रासाद बनवाया जिसमें आकाश में चलने वाली सुन्दरियाँ क्रीड़ा करती हुई कभी-कभी आ जाया करती थीं। २५. सुवर्णमय कलश एंव ध्वज युक्त स्वच्छ कांति से उसकी आकृति कपिशवर्ण की भांति दिखायी पड़ रही थी, मानो गरिक (कैलाश ) भगवान शिव और पार्वती का गैरिक गौरव मन्दिर को प्राप्त हो। २६. सिद्धराज द्वारा साधित अत्यन्त सुन्दर भोग सामग्री से यह भगवान विरूपाक्ष भी मानो प्रसन्न नेवा से यहाँ विराजमान हैं। २७. जब तक हेमाद्रि (सुवर्ण मेरु) पर्वत, समुद्र जिसका वस्त्र है (ऐसी पृथ्वी को) शोभित कर रहा है तब तक वन्दनीय श्री विरूपाक्ष मन्दिर समृद्धि प्रदान करता रहे। २८. एक ही दिन में महाप्रबन्ध निर्माण करने में सक्षम, सिद्धराज के माने हुए भाई तथा _ विचक्रवर्ती, 'श्रीपाल' के द्वारा इस प्रशस्ति की रचना की गयी। २९. 'राजबल्लभ बिरुद धारी मुनियों में श्रेष्ठ, जगतविल्यास 'जिनभद्राचार्य, जो साहित्य में - प्रवीण और गुणीजन में श्रेष्ठ थे ।
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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