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________________ जयसिंह सिद्धराज का विरूपाक्ष मन्दिर (बिरगांव) का अभिलेख ९ १०. उसका दूसरा भाई था : पुण्यजन्मा 'नागराज,' जिसने बड़े-बई राजाओं को जीत लिया और सदाचार के कारण कलि को भी तिरस्कृत कर दिया । उसने दोनों पद्धतियों (कम एष संन्यास) से परलोक गति को सिद्ध कर लिया था । उसका पुत्र 'श्री भीमदेव' हुआ जिसकी कीर्ति आज भी चारो दिशाओं में शत्रपीरो के अस्थिपञ्जरों के रूप में पृथ्वी पर मूर्तिमान सी शोभित हो रही है । १२. सिन्धुदेश के राजा की उंगलियों के गिरते हुए रक्त से, लायाधिपति की स्त्रियों के गालों पर लगे केसर रस से मिश्रित अश्रुजल, और शस्त्रों से उखाड़े गए मालवेश्वर योद्धाओं के व्यूह के आंसुओं के भरने से सौंचे गए जिस के शौर्य रूपी वृक्ष ने जनानुराग कपी पुष्प उत्पन्न किया । १३. रामाभों में श्रेष्ठ उसका पुत्र कर्णदेव' हुआ, जिसके हाथ मदमत्त हाथियों के शिरों को फाबने से रक्तवर्ण हो गए और जो वैरी राजाओं के विनत होने पर उनकी पीठ को अपने हाथों से रंग करता था; मानो उनको लौटा दी गयी संपूर्ण राजलक्ष्मी की स्थिरता हेतु यह राजमुद्रा के अंकन के रूप में शोभित हुआ । १४. दान से प्रसन्न (संतुष्ट) ब्राह्मणों द्वारा निरन्तर प्रारम्भ किए गए अनेक यज्ञों से आतृप्त नाफपति (इन्द्र) द्वारा उत्कंठापूर्वक आमन्त्रित किए जाने पर स्वर्गगमन की इच्छाबाले इस राजा (कर्ण देव) ने अपने पुत्र 'जयसिंह देव' को अपने राज्य पर अभिषिक्त किया। १५. यह स्वयं श्री पुरुषोत्तम है । अन्धक के शत्रु भगवान् शंकर सिद्धाधिपत्य देनेवाली रस सिद्धि इस राजा को देगें, जो क्षण में असहायों की सहायता में रुचि या साहस रखनेवाले अद्भुत कर्मों को करनेवाला होगा।" ऐसा इस राजी के जन्म के समय में ही लोकोत्तर ज्ञानियों द्वारा कहा गया । १६. (उनके) शत्रु राजाओं की स्त्रियों ने पर्वत की कन्दराओं में आश्रय ग्रहण किया और वनचरी स्त्रियों के सहवास के कारण उनके द्वारा प्रदत्त गुंजा फल की मालाएं आभूषण के रूप में धारण की, जो दीर्घकाल तक इनके प्रति क्रोध की चिनगारियों के समान वक्षःस्थल पर स्थित थी। १७. यही राजा चन्द्रमा की सम्पूर्ण कलाओं से अलंकृत पूर्ण मण्डलता को प्राप्त होने पर भी कलंकरहित था। १८. सुन्दरियाँ संकल्प में, विचारों में, बोलने में, देखने में, बिलास के चित्र-विधि में, सोने में और भनेक बातों में सर्वत्र इस राजा को ही देखती थीं; ऐसा प्रतीत होता है कि मानों भनेक रूपो. को धारण करने की सिद्धि उसे प्राप्त थी, ऐसा उसे महाविद्या समझते हैं। २
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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