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________________ नयसिंह सिद्धराज का विरूपाक्ष मन्दिर (बिलपांक)का अभिलेख, संवत् ११६८ अरविन्द कुमार सिंह यह अभिलेख रतलाम जिले(मध्य प्रदेश)में स्थित बिलपांक गाँव के विरूपाक्ष मन्दिर के हाते में, मुख्य मन्दिर से कुछ दूर, मकान बनाने के लिए नींव खोदते समय ग्रामवासियों को प्राप्त हुआ था। इस समय यह मन्दिर के अन्तराल की दीवाल में लगा हुआ है। प्रस्तुत अभिलेख की प्रथम जानकारी १७ जून १९६४ ई. को हिन्दी दैनिक नई दुनिया से हुई । उसी दैनिक के २३ दिसम्बर १९६४ ई. के अंक से डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणफर भऔर प्रोफेसर बी. वेन्कटाचलम् द्वारा अभिलेख की वाचना का पता चला। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित भारतीय अभिलेख पर वार्षिक विवरण (१९६९-७०)2 में भी अभिलेख सम्बन्धी कुछ जानकारी दी गई । फिर १९८६ ई. में बिलपांक से प्रकाशित स्मारिका में हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद सहित इस अभिलेख का पूरा पाठ मन्दिर के चित्रों के साथ छपा । परन्तु अमेरिकान इन्सटीट्युट ऑफ इण्डियन स्टडीज़ (गमनगर, वाराणसी) द्वारा प्रस्तुत अभिलेख के लिए गए छायाचित्र से मिलान करने पर अनेक स्थलों पर पाठभेद मुझे दिखाई दिये । इसी करण इसे यहाँ पुनः सम्पादित किया जा रहा है। .. संस्कृत भाषा-निबद्ध २६ पंक्तियोवाला यह प्रशस्तिलेख आरम्भ के "ॐ नमः शिवाय" तथा अन्त के मिति वाले भाग को छोड़कर पद्यरूप है । अभिलेख में ३० पद्य हैं । इसमें मेघस्फूर्जिता (पद्य१), शिखरिणी (२,१९,२३ , सग्धरा(३,२०), गर्या (४,२१,२९,३०), अनुष्टुभ (५,८,१७,२६,२७), इन्द्रवजा (५,१०,२८), उपजाति (२४), बसन्ततिलका (७,११,१६), शार्दूलविक्रीडित(९,१२,१५,१८,२२), और रथोद्धता (२५) वृत्तों का प्रयोग हुआ हैं । अन्तिम पंक्ति अनुसार अभिलेख स्पष्ट तथा शुद्ध अक्षरों में टंकित हुआ । नागरी लिपि के सुन्दर वर्णो में खुदी हुई इस प्रशस्ति से यह दावा निःशक प्रमाणित होता है। दाहिने छोर को समान रखने के लिए कुछ पंक्तियों में एक या दो खड़ी लकीरें खींची है । किन्तु कहीं-कहीं वर्णविकार भी है, जैसे पंक्ति २ में 'एशममृत' के स्थान पर 'दृशमममृत' और ११ वी पंक्ति में 'भूपतिलकः' की जगह 'भूपलिलकः' का लिखा होना । कुछ सुधार अभिलेख के पूरा खोदने के बाद भी किए गए थे जैसे 'कीर्तयितु' (4.८) में 'ई' की मात्र पतले आकर में बादमें जोड़ी गई है । इसी शब्द में 'तु' की मात्रा और अक्षर की रेखा मिल जाने से अक्षर का रूप बदल गया है । इसी प्रकार के कुछ और भी दोष हैं । सम्भव है लिपिकार या उट्टकणकार से यह गलतियाँ प्रशस्ति के उत्थानिक २ पद्य शिवाराधना रूपेण है। शिव द्वारा चुरुलु में लिए जल से चुलुक्य या चौक्य वश की उत्पत्ति की दन्तकथा ३-४ पध से उजागर होती है । लादेश
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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