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पद्मसुन्दरसूरिविरचित
स्थूलस्थूलं. पृथिव्यादि स्कन्धभेदा इमे स्मृताः । शुभायुर्नामगोत्राणि सद्वेय पुण्यमुच्यते ।।१२४॥ द्विचत्वारिंशता भेदैः विस्तरेण निवेदितम् । पुण्यादन्यत् पुनः पापं तद् द्वयशीतिविधं स्मृतम् ॥१२५।। कायवाङ्मनसां योगैः कषायैरिन्द्रियाऽव्रतैः । पञ्चविंशतिमात्राभिः क्रियाभिः स्यादिहाश्रवः ॥१२६॥ शुभाश्रवस्तु पुण्यस्य पापस्य त्वशुभाश्रवः । आश्रवाणां तु सर्वेषां निरोधः संवरो मतः ॥१२७॥ स द्विधा द्रव्यभावाभ्यां भवहेतुक्रियोज्झनम् । स भावसंवरः कर्म पुद्गलादानविच्छिदा ।।१२८॥ स्याद् द्रव्यसंवरः सोऽपि धर्मैः समितिगुप्तिभिः । अनुप्रेक्षासचारित्रपरीषहजयैर्युतः ॥१३९।। तपसा निर्जरा द्वेधा तपः स्मद् बाह्यमान्तरम् । बाह्यं तपः षड्विधं स्यात् तथैवाऽऽभ्यन्तर मतम् ।।१३०॥ सविपाकाऽविपाका सा स्यादुपायात् स्वतोऽपि वा । मिथ्यात्वं सकषायाश्च योगा अविरतिस्तथा ॥१३१।। प्रमादश्चेत्यमी बन्धहेतवः स्युरिहाङ्गिनाम् ।
प्रकृतिश्च स्थितिरनुभागः प्रदेश इत्यमी ।।१३२॥
(१२४कड-१२५) शुभायु, शुभनाम, शुभगोत्र, सातावेटनीय-ये चार प्रकार के कर्म पुण्य कहलाते है। इनके सब मिलकर बयालीस (४२) भेद कहे गये हैं । पुण्य से विरुद्ध पाप हैं । पाप के बरासी (८२) भेद हैं । (१२६) मन, वचन
और काया की प्रवृत्ति से, (चार) कषायों से, (पांच) इन्द्रियों से, (पाँच) अव्रतों से और १च्चीस क्रियाओं से आस्रव होता है । (१२७) शुभ आसन पुण्य का कारण है, अशुभ आसव पाप का । सब प्रकार के आस्रवों का निरोध संवर कहा जाता है । (१२८-१२९) संवर के दो प्रकार हैं-द्रव्यसंवर और भावस वर । संसार के हेतु रूप क्रिया का त्याग भावसंवर है । कर्म पुदगल के आने को रोक देना यह द्रव्यसंवर है । संवर के उपाय धर्म, समिति, गुप्ति, अनुप्रेक्षा, चारित्र्य और परीषहजय है । (१३०) तप से निर्जरा होती है। तप दो प्रकार का है-बाह्य और आन्तरिक । बाह्य तप के छः भेद हैं। वैसे. ही आन्तर तप के भी छः भेद हैं । (१३१-१३२) निर्जरा दो प्रकार की होती हैविपाकसहित और विपाकरहित । निर्जरा उपाय से भी होती है, स्वतः भी होती है । मिथ्यात्व, कषाय, योग, अविरति और प्रमाद संसारी के बन्ध के हेतु हैं । बन्ध के 'ये चार भेद हैं-प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ।
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