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________________ १०० श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य स्वं परं च सकलं विविध्य तद् वस्तु वास्तवमनन्तधर्मकम् । स्वात्मवस्तुनि यदासजस्तरां तत् तवाऽस्ति समदर्शिता कुतः ! ॥१३॥ शर्म यच्च परनिघ्नमत्यज स्तत् स्वनिघ्नमभिकाक्षसे भृशम् । स्वां विहाय सकलां नृपश्रियं तावकी विरतिरद्भुता विभो । ॥१०४॥ . .. भेजिरे किल पुरा सुरासुरा स्त्वं तथैव भुवनेश साम्प्रतम् । काममेव चकमे व्रतश्रियं तत् तपोभ्युपगमस्तवाऽद्भुतः ॥१०५॥ मादृशैः सुचरितं भवादृशां विश्वविश्वप ! न चास्ति गोचरम् । तत् स्वमेव वचसामगोचर ___ स्त्वां शरण्यशरणं श्रिया वयम् ॥१.६।। __ (१.३) स्व और पर सकल वस्तु वास्तव में अनन्त धर्मों वाली होती है ऐसा विवेक से निश्चय करने के बाद भी अपनी आत्मारूप वस्तु में आप जो विशेषतः मासक्त हो गये हैं, तो फिर आपकी समदर्शिता कहाँ ? (१०४) अपनी सम्पूर्ण राज्यलक्ष्मी को छोड़कर पराधीन सुख को आपने छोड़ दिया और स्वाधीन सुख की आप उत्कट इच्छा करते हो । हे प्रभो !, आपकी यह विरक्ति बड़ी ही अद्भुत है । (१०५) हे भुवनेश !, देवताओं और असुरों ने जो पहले आपकी सेवा की थी, उसी प्रकार अब भी सेवा करते हैं, और भाप ब्रतश्री की अत्यन्त इच्छा करते हैं। इसलिए आपके तप का स्वीकार अद्भुत है। (१०६) हे सम्पूर्ण विश्व का पालन करने वाले प्रभो !, मुझ जैमों के द्वारा आप जैसों का सुन्दर चरित नहीं जाना जा सकता । आप वाणी से अगोचर हैं । शरणागत की रक्षा करने वाले आपके हम शरण में आये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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