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________________ ९९ पसुन्दरसूरिविरचित यन्निरस्तजगदुप्रसंज्वरं विश्वविश्वजनतेकपावनम् । गागवारिसवनं पुनातु वा । स्वंद्वतग्रहणमध नः प्रभो ! ॥९८॥ राज्यसम्पदमिमां चलाचला माकलय्य भगवान् भवानिति । आजवंजवजकृष्हानये प्रत्यपधत विशुद्धसंयमम् ॥९९।। स्नेहरागनिगड विभिद्य यत् । त्वं मदान्धगजवद् वनं गतः । सावरोधजनकादिबन्धुता . नावरोधनकरी तवाभवत् ॥१०॥ जीवितं किल शतहदाचलं स्वप्नभोग इव भोगसङ्गमः । सम्पदो जलतरङ्गभगुरा इत्यवेत्य शिवमार्गमासदः ॥१.१॥ यदिहाय नृपतारमामिमा रज्यते स्म भगवास्तपःश्रिया ।। काक्षसे यदिह "मुक्तिवल्लभां वीतरागपदवी कुतस्त्वयि ! ॥१०२॥ ' (९८) हे प्रभो !, आपका यह व्रतग्रहण आज हमें गंगाजल के स्नान के समान पवित्र करे । यह व्रतग्रहण संसार के सभी उत्ताप को दूर करने वाला तथा सम्पूर्ण विश्व को पवित्र करने वाला है। (९९) राज्य की यह सम्पत्ति चलाचल है ऐसा सोचकर आपने शीघ्र ही कष्ट की हानि के लिए विशुद्ध संयम को स्वीकार किया है । (१००) मदान्ध हाथी की तरह आप स्नेह और राग की जंजीर को तोड़कर वन में गए । पिता आदि की अवरोधकारी सगाई (संबंध) आपके लिये अवरोधक न हुई । (१०१) आपने जीवन को बिजली के समान चंचल, सांसारिक भोगों स्वप्नभोग के समान (मिथ्या), सम्पत्ति को जलतरंगों के समान क्षणभंगुर समझकरी आप ने मोक्ष को अपनाया है । (१०२) इस राज्यलक्ष्मी को बोरकर आपने जो तप:श्री से अनुगग किया तथा यहाँ मुक्तिप्रिया की जो इच्छा की, तो फिर भापमें वीतरागता कैसे मानी जाये ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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