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पद्मसुन्दरसूरिविरचित अथान्यदा यौवनरामणीयकं वपुर्दधानां दद्दशे प्रभावतीम् । पिता तदुद्वाहकृते कृतादरो विभोः स पार्श्वस्य पुरो व्यजिज्ञपत् ॥३६॥ भवादृशां यद्यपि मन्दरागिणी भवाङ्गभोगेषु मतिः प्रवर्तते । तथापि धर्मो गृहमेधिनामयं विधीयते दा परिग्रहस्थितिः ॥३७॥ भवान् स्वयंभूभगवास्तवोद्भवे निमित्तमात्र जनको यतोऽभवत् । उदे यतश्चण्डकरस्य हि स्वतस्तदुद्भवे हेतुरिवोदयाचलः ॥३८॥ भवद्विधैराचरिते हि सत्पथे महाजनोऽयत्र तथा प्रवर्तताम् । क्रमो हि के महतां प्रदर्शितो. ऽनुवर्तते प्राकृतलोक एष तम् ॥३९।। प्रसीद विश्वेश्वर ! मद्विधे जने वचस्त्वमङ्गीकुरु मे नयोचितम् । प्रभावती मेव भवान् मदङ्गजां निजं कलत्रं विदधावनुग्रहात् ।।४०॥
(३६) एक दिन उसके पिता ने प्रभावती को युवावस्था से सुन्दर शरीर धारण करती हुई देखा । अतः उसके विवाह के लिए पिता ने आदरपूर्वक प्रभुपार्श्वकुमार के सम्मुख निवेदन किया । (३७) हे प्रभो!, यद्यपि सांसारिक भोगों में आपकी बुद्धि मन्दराग वाली है तो भी गृहस्थों का यह धर्म है कि विवाहसंस्कार की स्थिति का विधान किया जाये । (३८) हे भगवन् !, आप स्वयंभू हैं । आपके जन्म के समय आपके पिता केवल निमित्त पत्र थे जैसे उस्य पाने वाले प्रचण्डसूर्य के (उदय के प्रति) उदयाचल पर्वत, केवल निमित्तमात्र है । (३९) आप जैसों के द्वारा सन्मार्ग का आचरण करने पर बड़े लोग भी वैसा ही करें, क्योंकि यह क्रम रहा है कि महान् लोगों के द्वारा प्रदर्शित मर्य का अन्य लोग अनुवर्तन करते ही हैं । (४०) हे विश्वेश्वर !, मुझ जैसे व्यक्ति पर प्रसन्न, होइये । मेरे न्यायोचित वचन को स्वीकार कर आप मेरी पुत्री प्रभावती को कृपा करके अपनी पत्नीरूप में ग्रहण कीजिए ।
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