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श्री पार्श्वनाथचरितमहाकाव्यं
श्रुतिश्रितेऽस्या मणिहेमकुण्डले प्रभासमाने मुखमण्डलश्रिया । रथाङ्गरूपे इव मान्मथानसो विलेस तुर्लास्यमुपागते ध्रुवम् ॥ ३१ ॥ स्मराभिषेकाय ललाटपट्टिका विनिर्मिता विश्वसृजेव गब्दिका । स्फुटं तदीया शितिचूर्ण कुन्तल - प्रकीर्णकव्यञ्जितराजलक्षणा ॥ ३२॥ aat तदीये किल मुख्यकार्मुकं स्मरस्य पुष्पास्त्रमिहौपचारिकम् । मुखाम्बुजेऽस्या भ्रमरभ्रमायितं घनाञ्जनाभैर्भ्रमरालकैरलम् ॥३३॥
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इयं सुकेश्यः कचपाशमञ्जरी विधुंतुदस्य प्रतिमामुपेयुषी । मुखेन्दुबिम्बप्रसनैक लिप्सया तमोञ्जनस्निग्धविभा विभाव्यते ॥ ३४ ॥
समप्रसर्गाद्भुतरूपसम्पदां
दिदृक्षयैकत्र विधिव्यधादिव ।
जगत्त्रयीयौवत मौलिमालिका
मशेष सौन्दर्य परिष्कृतां नु ताम् ||३५||
(३१) कानों पर आश्रित, मुखमण्डल के तेज से प्रकाशमान, उसके स्वर्णमणिमय दो
मृदुगति को प्राप्त होकर सचमुच शोभित थे ।
स्फुटरूप से प्रगट राजलक्षणों वाला उसका विश्वकर्ता ने मानों गब्दिका का निर्माण किया
कुण्डल 'कामदेव के दो चक्र की भाँति (३२) श्वेतचूर्ण से और बिखरे हुए कुन्तलों से 'विशाल ललाट कामदेव के अभिषेक के लिए हो, ऐसा दिखाई देता था । (३३) उसकी दोनों भौंहें कामदेव का मुख्य धनुष थीं । पुष्पास्त्र तो केवल औपचारिक रूप में था । उसके मुखकमल में भौंहों की गाढ़ अञ्जन के अलंका भ्रमर के भ्रम को पैदा करती थी । ( ३४ ) इस शोभनकेशों वाली कन्या की केशपाशमंजरी राहु की आकृति को धारण करती हुई मुखरूपचन्द्रबिम्ब को ग्रसित करने की एकमात्र इच्छा से काले अंजन की स्निग्ध कान्ति के समान लगती थी । (३५) विधाता ने सम्पूर्ण सृष्टि की अद्भुत रूपसम्पत्ति को एक ही जगह देखने की इच्छा से उसे त्रिलोकी के युवतिसमुदाय में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण सौन्दर्यशालिनी बनाया ।
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