________________
पनसम्बरसूरिशिक्षित क्षोणीशस्य प्रसेनस्य च परदलनाभ्युपतस्यापि चापा
निर्यातो बाणवारः समरभरमहाम्भोधिमन्थाचलस्य । नो मध्ये दृश्यते वा दिशि विदिशि न च क्वापि किन्तु व्रणाहकः
शत्रणामेव हृत्सु स्फुटमचिरमसौ पापति रवेधी ॥१५॥ अस्य झोणोशस्य खड्गः समन्ताद
___ द्वैधीभावं विहिषामन्वयुस्मस । मत्वा समिकतः स्वार्थसिदि
हिवेवान्यं षड्गुणवं सुतीक्ष्णः ॥१५१॥ . मिथः प्रवृतं तुमुलनुभयोः सेनयोरथ । शराशरि महाभीम शस्त्राशस्त्रि गदागदि ॥१५२॥ दृष्ट्याशु कालयमनभटैः स्वं निर्मितं बलम् । प्रसेनजित् स्वयं योद्धमारेभे प्रतिषारुणः ॥१५३।। तस्य ज्वलन्तो निशिताः शरोषाः स्फूर्तिभीषणाः । मूर्षसु द्विषतां पेतुर्षज्रपातायिला ध्रुवम् ॥१५४॥ स्फुरद्भिनिशितैः प्रासैः सायकैर्वेगवसरैः । उल्काबालेरिखाकीर्णा दिशः प्रज्वलितान्तराः ॥१५५। अस्य fस्त्रिंशकालिन्दीवेणीमाप्य परासवः ।
मिमज्ज्य विद्विषः प्राप्ताः स्वर्गस्त्रीसुरतोत्सवम् ।।१५६।। (१५०) समराङ्गणरूप महासागर का मन्थन करने में पर्वतरूप और शत्रुओं को नष्ट करने के लिए उद्यत पृथ्वीपति महाराजा प्रसेनजित् के धनुष से निकले हुए बाण न मध्य में और न दिशा-विदिशा में दृष्टिगत होते थे किन्तु शत्रुओं के हृदयों में उनके (बाणों के) घाव स्पष्ट रूप से प्रकट होते थे । (१५१) इस राजा प्रसेनजित् का खड्ग स्वयं अपनी स्वार्थसिद्धि को ही समझकर षड्गुणत्व का मानों परित्याग करके शत्रुओं में विरोध उत्पन्न करत था । (१५२) दोनों सेनाओं का पारस्परिक भयंकर बाणों का बाणों से, शस्त्रों का शस्त्रों से, गदाओं का गदाओं से युद्ध शुरू होने लगा । (१५३) कालयमन के योद्धाओं के द्वारा स्वयं की विजित सेना को देख कर महाराजा प्रसेनजित् स्वयं युद्ध के लिए तैयार हो गये। (१५४) उस राजा प्रसेनजित् के ज्वलायमान, तीक्ष्ण, स्फूर्ति से भयंकर बाण शत्रुओं के मस्तकों पर वज्रपात के समान गिरने लगे। (१५५) चमकते तीक्ष्ण और वेगशील फेंके गये बाणों से दिशाएँ ऐसी चमक उठीं मानों उल्का की ज्वाला भों से व्याप्त हों । (१५६) इस राजा के खड्गरूप कोलिन्दी वेणी (यमुनानदी का प्रवाह) को प्राप्त कर मृत्यु को प्राप्त हुए शत्रु स्वर्ग की स्त्रियों के साथ सुरतक्रीडा का उत्सव प्राप्त करने लगे।
१०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org