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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य
लघुकृत्यकरा बाणाः प्रगुणा दूरदर्शिनः । क्षिप्रोडोनाः खगाः पेतुः खगास्तीक्ष्णानना इव ॥१४३॥ कश्चित् परेरितान् बाणान् अर्धचन्द्रनिभैः शरैः । चिच्छेद सम्मुखायातॉल्लघुहस्तो धनुर्धरः ॥१४४।। पन्विभिः कृतसन्धानाः शरासनमधिष्ठिताः ।। यानं प्राप्ताश्च मध्यस्था द्वैधीभावरत: शराः ॥१४५॥ विग्रहे निरताः शत्रुसंश्रया दूरदर्शिनः । पाइगुण्यमिव नीतास्ते स्वक्रियासिद्धिमाप्नुवन् ।युग्मम् ॥१४६॥ केषाठिचद् दृढमुष्टीनां बाणाः पारङ्गमा इव । लक्ष्यन्ते लक्ष्यमुद्भिद्य गजाश्वरथसैनिकम् ॥१४७॥ नाराचधारासम्पातभिन्ना अपि महारथाः । तथाप्यभ्यरि धावन्तश्चिरं युयुधिरे भृशम् ॥१४८॥ कर्णलाना गुणयुताः सपत्नाः शीघ्रगामिनः । दूता इव शरा रेजुः कृतार्थाः परहृद्गताः ॥१४९॥
(१४३-१४४) शीघ्र कार्य करने वाले, दूर तक देखने वाले, ऋजु गति वाले, झड़प से उड़ने वाले, आकाश में गमन करने वाले और धारदार मुख वाले बाण शीघ्र कार्यकारी, दूरदर्शी, ऋजु गति वाले, झड़प से उड़ने वाले, आकाशगानी और तीक्षा चोंच वाले पक्षियों की तरह गिरते थे। (१४५.-१४६) धनुर्धारियों के द्वारा जिन्होंने (डोरी-ज्या के साथ) सन्धि की है, जिन्होंने अपने आसन (धनुष) पर स्थान जमाया है; जिन्होंने यान (गमन) प्राप्त किया है, जिन्होंने (रण के) मध्य में रहकर द्वैधीभाव प्राप्त किया है ; जिन्नोंने विग्रह में (शरीर) में प्रवेश किया है और जिन्होंने शत्रुओं का आश्रय लिया है ऐसे दूरदर्शी बोण मानों षड्गुणवाले बन कर अपनी कार्यसिद्धि को पूर्ण कर रहे ये । युग्मम् । (१४७) दृढ़ मुठ्ठी वाले किन्हीं बहादुरों के बाण, गज, अश्व, रथ, सैनिक आदि लक्ष्य. को बेध कर मानो पारगामी हों ऐसे दिखाई देते थे । (१४८) बाणों की मूसलाधार वर्षा से छिन्नभिन्न महारथी, दुश्मनों के सम्मुख दौड़ते हुए, खूब जोर से बहुत समय तक युद्ध करने लगे । (१४९) कर्णलग्न (कानों तक खींचे हुए), गुणयुक्त (ज्या से सम्बद्ध), सपत्न (एक साथ गिरने वाले), शीघ्रगामी, कृतार्थ और परहृदयगत (दुश्मन के हृदय में लगे हुए), बाण कर्णलग्न (कान में बात कहते हुए) गुणयुक्त, सपत्न, शीघ्रगामी, कृतार्थ और परहद्गत दूतों जैसे शोभित थे।
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