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लघु श्रीणलरास
'पिताजी यही मेरा पति जो आपने कोटी रूप में मुझे प्रदान किया था ।' प्रजापाल राजा के आश्चर्य का पारावार न था । इसी अवसर पर नव नाटक वृन्द को नाटक करने का आहवान किया । पर मुख्य गणिका उस दिन नाटक के लिए तैयार न हो रही थी, पर राजाशा के कारण लाचार होकर उसे मंच पर आना पड़ा । गणिकाने दोहे के माध्यम में अपना स्वरूप प्रगट किया तब सभी को विदित हुआ कि यह प्रजापाल राजा की कन्या, सौभाग्यसुदरी की पुत्री सुरसुदरी ही है। विवाह के पश्चात् अपने देश में जाते समय रास्ते में डाकुओं ने डाका डाला फलस्वरूप उसका पति उसे छोड़ कर चला गया । उसे डाकुओं ने पकड़कर बेच दिया एक वेश्या को और वहाँ बाबरपति ने अपने नवनाटकों में उसे शामिल किया । राजा प्रबापाल को आपकमाई और बापकमाई की कसौटी हो गई ।
श्रीपाल अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने के के लिए ससैन्य रवाना हुआ। काका अवितसेन से राज्य वापस लौटने की मांग की पर अन्ततः संग्राम कर राज्य प्राप्त किया। अजितसेन ने वैराग्यबासित होकर दीक्षा ले ली। मयणासुन्दरी को श्रीपाल ने पहराणी बनाया। घवल अष्ठी के पुत्र निर्मल को श्रेष्ठीपद पर स्थापित किया । सिद्धचक्र की पूजा प्रभावना अपने राज्य में अमारि की घोषणा के साथ में करायी। इस प्रकार राज्य संचालन करते हुए अपने कुटुम्ब के साथ श्रीपाल धर्मध्यानपूर्वक समय पसार करने लगे । अजितसेन नृप को ज्ञानप्राप्त होने पर श्रीपाल ने पूर्वभव का वृतान्त पूछा । पूर्वकृत कर्मानुसार ही फलप्राप्ति जान श्रीपाल को आत्मजागृप्ति हुई एवं धर्म प्रवृत्ति में अधिक प्रवृत्त हुभो ।
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