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________________ जैन मन्दिरों में काम-शिल्प २१ पाद-टिप्पणी : (१) दृष्टव्य, देसाई, देवांगना, एराटिक स्कल्पचर ऑव इण्डिया-ए सोशियो ___ कल्चरल स्टडी, दिल्ली, १९७५ । (२) वही, प्रकाश विद्या, खजुराहो-ए स्टडी इन दि कल्चरल कण्डिशन्स व चन्देल सोसाइटी, बम्बई, १९६७, पृ० १५३-७७ (३) काम-कला से सम्बन्धित अंकनों में काम-क्रिया का जो उद्दाम रूप मोढेरा, खजुराहो, कोणार्क एवं भुवनेश्वर के मन्दिरों पर अभिव्यक्त हुआ है, वह निश्चित ही अस्वाभाविक है । इनमें स्त्री-पुरुष युगलों के सामान्य रति-अंकनों के साथ ही तीन, चार या अधिक आकृतियों के समुह में भी काम-क्रिया सम्बन्धी अंकन हैं । एक स्त्री के साथ दो या उससे अधिक पुरुष और पुरुष के साथ 'दो या अधिक स्त्रियाँ की रतिक्रिया उनका विषय रहा है। इनमें अनेकशः मानव-पशु (श्वान, अश्व, गर्दभ, मृग) काम-क्रीड़ा को भी दरशाया गया है । ये दृश्य स्पष्टत: समाज में व्याप्त काम के उद्दाम या स्वच्छन्द स्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं, चाहे उसका कारण कुछ भी रहा हो । ये मतियाँ काम की स्वाभाविक अभिव्यक्ति से प्रारम्भ होकर उस अस्वाभाविक स्थिति तक जाती हैं जब मनुष्य और पशु का अन्तर पूरी तरह समाप्त हो जाता है और मनुष्य पशुवत आचरण करने लगता है । मानव-पशु समागम के अंकन उसी स्थिति के सूचक हैं। इन रति-अंकनो में राज-परिवार एवं सामान्य व्यक्तियों के अतिरिक्त दाढी एवं जटा से युक्त ब्राह्मण और मयूरपीच्छिका से युक्त मुदे हुए मस्त कवाले जैन साधु भी दिखाये गये हैं। संभव है इस प्रकार के उद्दाम काम-शिल्प के मन्दिरों पर अंकन के माध्यम से धर्माचार्यों ने उन्हें पूरी तरह प्रकट कर लोगों को उनसे विरत रखने का मनोवैज्ञानिक प्रयास किया हो। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि यदि मनुष्य की दबी हुई इच्छाओं को पूरी तरह प्रकट होने का अवसर मिल जाता है तो कुछ समय पश्चात् स्वयं उसी में सही-गलत के विचार का विवेक उत्पन्न हो जाता है । धर्माचार्यों ने भी संभवतः समाज में व्याप्त काम की उद्दाम स्थिति को नियं त्रित करने के लिए यही मनोवैज्ञानिक तरीका मन्दिरों पर उनकी पूर्ण एवं स्वच्छंद अभिव्यक्ति द्वारा अपनाया था। यही कारण है कि इस प्रकार के अस्वाभाविक काम-शिल्पों में कुछ आकृतियों को इन कृत्यों पर आश्चर्य या शर्म व्यक्त करते हुए भी दिखाया गया है । बृहत्संहिता ७४. २० लक्ष्मण, कदरिया महादेव, जगदंबा, विश्वनाथ एव पार्श्वनाथ मन्दिर१० वी - ११ वी शती ई० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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