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सुषमा कुलश्रेष्ठ
बद्धालापाः बद्धाः संप्रवेशिताः साधिताः रागाणाम् आलापाः यैस्ते अर्थात् उन शंगाररसिक यक्षों ने संगीत के रागों के आलापों को साध लिया है। किन्नर जो गान कर रहे हैं, उसके शब्द कुबेरयशोगानपरक हैं तथा वह गान संगीत के किसी राग में आबद्ध हैं और उस राग के स्वरों को विभिन्न आलापों के अभ्यास द्वारा यक्षों ने भो साथ लिया है अर्थात् किन्नरों के गान के बीच बीच में यक्षगण भी आलाप प्रस्तुत कर रहे है -- ऐसा अर्थ भी निकाला जा सकता है । इस प्रकार एक तरह से समूहगान वहाँ चल रहा है।
प्रस्तुत श्लोक भरतमल्लिक, सनातन रामनाथ, हरगोविन्द, कल्याणमल्ल तथा विलसन में प्राप्त नहीं होता । ईश्वरचन्द्र विद्यासागर भी इसे संदिग्ध पद्य मानते हैं ।
सारोद्धारिणी, महिमसिंहगणि, सुमतिविजय, मेघलता, शिशुहितैषिणी तथा कुछ अन्य हस्तलिखित प्रतियों में 'बद्धालापा:' के स्थान पर 'बापानं' पाठ मिलता है जिसकी व्याख्या सारोद्धारिणी के अनुसार रचितपानगोष्ठिक' है। महिमसिंहगणि लिखते हैं --'बद्धं रचित आपानं बाह्यपानगोष्ठी-यत्र तत्' । सुमितिविजय के अनुसार इसका अर्थ है -- 'बद्धं रचितं आपानं पानगोष्ठी यत्र तत् ।'
वल्लभदेव के अनुसार यहाँ पाठ है 'मध्वापान' जिसका अर्थ है-- 'मधुनो मद्यस्यापान पानगोष्ठिका-यस्मिन् तत् ।' 'विबुधवनितावारमुख्यासहायाः' के सम्बन्ध में सारोद्धारिणी में उल्लेख है--'कलाकुशलाइगनावेश्यासहिता वा । इस प्रकार 'बद्धालापाः' के स्थान पर 'बद्धापान' तथा 'मध्वापान' पाठ अधिक उचित प्रतीत होते हैं क्योंकि कामिजन जहाँ चतुर कलाकुशल वारवनिताओं के साथ बैठकर सुन्दर कण्ठध्वनि वाले किन्नरों के कुबेर यशोगानपरक मधुर संगीत का रसास्वाद कर रहे हैं, वहीं यदि मधुपानगोष्ठी का आयोजन भी चल रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं । संगीतगोष्ठी तथा पानगोष्ठी का एक साथ वर्णन कवि ने अन्यत्र भी किया ही है । विबुधवनितावारमुख्यासहाया तथा 'बद्धापानम्' अथवा 'मध्वापानम्' पद इस तथ्य के भी निदर्शक हैं कि कामिजन अभी तो किन्नरों के मधुर गान को वारवनिताओं के साथ सुन रहे हैं, किन्नरों के गान के पश्चात् वारवनिताये जो कलाकुशल हैं, वे भी संगीत या नत्यादि अपनी कला प्रस्तुत करेंगी जिसका आनन्द कामिजन किन्नरों के साथ प्राप्त करेगे
और बीच बीच में मधुपान का प्रसंग तो चलता ही रहेगा । इस प्रकार प्रस्तुत पद्य में संगीत गोष्ठी, पान गोष्ठी, उनके समुचित स्थान अर्थात् 'वैभ्राज' नामक बाह्योद्यान, कलाकार, श्रोता एवं दर्शकों का सुष्ठ निर्देश है।
अलकाववर्णनपरक ये तीनों ही पद्य इस तथ्य के स्पष्ट परिचायक हैं कि अलका एक अतिसमद्ध नगरी है जहाँ संगीत को विशिष्ट स्थान प्राप्त है तथा जहाँ के निवासियों की संगीत में विशेष अभिरुचि है। सब मिलाकर इन तीनों पद्यों के सांगीतिक पक्ष के विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि कालिदास संगीत की सूक्ष्मातिसूक्ष्म बारीकियों से भलीभांति परिचित थे । यह तो केवल तीन पद्यों का विवेचन हुआ । केवल मेघदूत में ही लगभग ३७ पद्य ऐसे हैं जिनमें गायन, वादन अथवा नत्य का उल्लेख उपलब्ध होता है।
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