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________________ अलकापुरी और कालिदासीया संगीतवैदुषी उन पुष्करों की ध्वनि की तुलना कवि ने मेघ की गम्भीर ध्वनि से की है। मेघ-ध्वनि तथा पुष्कर-ध्वनि के साम्य के उल्लेख साहित्य में अनेक बार प्राप्त होते हैं। अब पुष्कखाद्य का शास्त्रीय विवेचन यहाँ प्रसंग प्राप्त है । पुष्कर, मृदग और मुरज-मृदंग आदिकाल में 'पुष्कर' वाद्य का नाम था । पुष्कर वाद्य में चमड़े से मढ़े हुए तीन मुख थे । दो मुख बायीं और दायों ओर रहते थे, तीसरा मुख ऊपर रहता था। उसका पिण्ड मृत या मिट्टी से बनाया जाता था। इसी कारण इसका नाम मृदंग पड़ा। कुछ समय के बाद बायों और दाहिनी ओर दो ही मुख वाले वाद्य की सष्टि हई । फिर उसका पिण्ड लकड़ी से बनाया गया इन पुष्कर आदि वाद्यों की उत्पत्ति के विषय में नाट्यशास्त्र में एक वृत्तान्त है। स्वाति और नारद संगीतवाद्यों के आदि ग्रन्थकर्ता हैं । इनमें स्वाति एक बार अनध्याय के दिन एक परोवर पर पानी लाने के लिए गये । आकाश मेघों से घिरा हुआ था, वेगपूर्वक वर्षा होने लगी। तब वायु वेग से सरेरावर में जल की बड़ी बड़ी बूंदों के पड़ते समय पद्म की बढ़ी, छोटी और मझोली पंखुडियों पर वर्षा-बिन्दुओं के आघात से विभिन्न ध्वनियाँ उत्पन्न हुई । उनकी अयक्त मधुरता को सुनकर आश्चर्यचकित स्वाति ने उन ध्वनियों को मन में धारणा कर लिया और आश्रम पहँचने पर विश्वकर्मा से कहा कि इसी तरह के शब्द उत्पन्न करने के लिए एक वाद्य बनना चाहिए । फलतः पहले पहल तीन मुख से यक्त 'मृत' से पुष्कर की साष्ट हुई । बाद में उसका पिण्ड लक्डी या लोहे से बनाया गया। तब हमारे मृदंग, पटह, झल्लरी, ददुर आदि चमड़े से मढ़े हुए वाद्यों की सष्टि हुई । __ मृदंग का पिण्ड बीजवृक्ष (तामिल में बैड्गे) या पनस की लकड़ी से बनाया जाता है। उसकी लंबाई २१ अंगुल (१५ इच) है । लकड़ी का दल आधे अंगुल का है। दाहिना मुख १४ अंगुल और बांया मुख १३ अंगुल है, मध्य में १५ अंगुल है। दोनों ओर के मुख चमड़े से मड़े जाते थे । किनारे पर चमड़ा घनता से युक्त रहता था । उस चमड़े के घेरे में २४ छिद्र रहते थे । छिद्रों का पारस्परिक अन्तर एक अंगुल रहता था । उन छिद्रों में से वेणी की तरह चमड़े की रस्सी से दोनों और खीच कर दृढ़ता से बाँधा जाता था । रस्सी के बंधन को ढीला करने या तानने से मृदंग के स्वर को ऊँचा या नीचा कर सकते थे । सुधाकलश ने भगवान् शकर को मृदंग या मुरज का आविष्कारक बताया है। प्राचीन ग्रन्थों में मृद'ग, पणव तथा ददुर को पुष्कर वाद्य कहा गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से मृदग, मरज आदि का उल्लेख वैदिक वाङ्मय में प्राप्त नहीं होता । रामायण, महाभारत में मग और मरज का उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु बाद में मुरज तथा मदल मृदंग के पर्याय रूप में प्रयुक्त होने लगे । यही मत शाङ्गदेव (स०र० पृ० ४५९) तथा अभिनवगप्ताचार्य (ना.शा० ३४, पृ० ४०५) का है । नाम परिवर्तन के साथ-साथ मृदंग का वह रूप जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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