________________
पनसुन्दरसूरिविरचित तदपुर्वनादेव सकच कला अपि । नवेन्दोरिव कान्तिौ गुणा ववृधिरेऽन्वहम् ॥२५॥ त्रिज्ञानभास्कारो जन्मदिनादारभ्य विश्वदृक् । पूर्वाभ्यस्ता इवाशेषा विद्यास्तस्मिन् प्रकाशित : ॥२६॥ अथाष्टवार्षिकः पार्वः कलाचार्यान्तिकं तदा । पित्रा नीतः कलाः सर्वा व्याकरोद् भगवान् स्यम् ॥२७॥ चक्रे पार्श्वमुपाध्यायं पीठे विन्यस्य स स्वयम् । कलाचायों विनेयोऽभूत् पृष्टः सर्वं जगौ विभुः ॥२८॥ सकलानां कलानां स पारदश्वाऽभवद्विभुः ।। अशिक्षितोऽपि सन्नीतिक्रियाचारेषु कर्मठः ॥२९।। अनधीत्येव सर्वेषु वाङ्मयेण्वस्य कौशलम् । वाचस्पतिगिरी देवीमतिशय्य विभोरमूत् ॥३०॥ स पुराणः कविः शारता वावदको विदांवरः । निसर्गजा गुणा यस्य कोष्ठबुद्धयादयोऽभवन् ॥ ॥ मनःप्रसादः सुतरां यस्य क्षायिकदर्शनात् ।
शब्दब्रह्ममयी यस्य विश्रान्ता भारती मुखे ॥३२॥ (२५) जैसे चन्द्रमा के शरीर की वृद्धि होने पर चन्द्रमा की, कान्ति तथा श्री के अतिशय वाली सकल कलाएँ प्रतिदिन बढती हैं वैसे उसके शरीर की वृद्धि होने पर उसकी, कान्ति और श्री के अतिशयवाली सकल कला विद्याए प्रतिदिन बढ़ती गई। (२६) ज्ञानत्रय के सूर्यरूप वह जन्मदिन से ही सबको देखता था और उसमें सब विद्याएँ आविर्भूत हो गई थींमानों उसने पहले उनका अभ्यास किया हो । (२७) आठ वर्ष की अवस्था वाला वह पाव. कुमार अपने पिताजी के द्वारा कलाचार्य गुरु के पास ले जाया गया (किन्तु) उस प्रभु ने स्वयं ही सम्पूर्ण कलाओं को प्रगट कर दो । (२८) उस कलाचार्य गुरु ने पार्वकुमार को आसन पर बिठा कर उपाध्याय बना दिया । कलाचार्य स्वयं उसका शिष्य हो गया और प्रभु से-पूछने पर उसने (प्रभु ने) सारी बातें बता दी । (२९) वह विभु पार्श्वकुमार सम्पूर्ण काओं में पारंगत था । पढ़ाया नहीं जाने पर भी वह सन्नीति, सत्कर्म व सदाचरणों में कुशल बन गया ।(३०) बिना पढे हुए ही सभी वाङ्मय (शास्त्रों) में उस विभु की कुशलता देवगरू इस्पति की वाग्देवी का भी अतिक्रमण करनेवाली हो गई । (३१) वह पुराणकवि था, सुशाबक था, वक्ता था, और विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ था । उसके कोष्ठबुद्धि आदि गुण नैसर्गिक थे। (३२) (दुर्शनमोहनीय कर्म केक्षय के परिणामस्वरूप उसमें ) क्षायिक दर्शन प्रगट होने के कारण उसका मन अक्लिष्ट (प्रसन्न, कषायो से रहित) था और उसके मुख में शब्दब्रह्ममयी सरस्वती ने वास किया था
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org