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________________ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य कण्ठीरवोऽपि दुष्कर्माऽर्जनाद् भ्रान्त्वा बहून् भवान् । मासीद् दरिद्रविप्रस्य सुतस्तज्जन्मवासरात् ॥७२॥ पितृ-मातृ-सगर्भादिकुटुम्बं सकलं तदा । मरकोपद्रवान्नीतं क्षयं तुग जीवति स्म सः ॥७३॥ कृपालुभिश्च तत्रत्यैर्महेभ्यैरन्नदानतः । वर्द्धितो विप्रबालोऽयं यौवनं प्राप च क्रमात् ॥७॥ कृच्छ्रेण जीविकां कुर्वन्नवज्ञां लभते स्म सः । धिग् दुःखभाजनं मामित्युक्त्वा संविग्नमानसः ॥७५॥ कन्दमूलादिभक्षी सन् पञ्चाग्न्यादि तपश्चरन् । बभूव तापसः काशिमण्डलस्य वने वसन् ॥७६॥... तत्पूजां महतीं चक्रुस्तत्रत्याः कुदृशो नराः । गतानुगतिको लोकः प्रायः स! न तत्ववित् ॥७७। इति श्रीमत्परापरपरमेष्ठिपदारविन्दमकरन्दसुन्दररसास्वादसम्प्रीणितभव्यभव्ये पण्डितश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीपार्श्वनाथमहाकाव्ये श्रीपार्वतीर्थकरगोत्रार्जन नाम द्वितीयः सर्गः । .. (७२-७३) पापकर्म प्राप्ति से सिंह भी वहुत जन्मों में भ्रमण करता हुआ दरिद्र ब्राह्मण के यहाँ पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । माता पिता, सकलकुटुम्बीजन उसके जन्मदिन ही मरकी के उपद्रव से नष्ट हो गये, लेकिन वह बालक जिन्दा रहा । (७४) उस नगर के रहने वाले धर्नान्य एवं दयालु जनों के द्वारा अन्नदान आदि से सम्बधित वह विप्रबालक क्रमशः युवावस्था में पहुँचा । (७५) बहुत कष्ट से जीविका का निर्वाह करता हुआ वह सर्वत्र अपमान प्राप्त करता था । 'मुझ दुःखी को धिक्कार है' ऐसा कहकर वह अतीव दुःखो मन वाला हो गया । (७६) कन्दमूल आदि खाकर पञ्चाग्नि तप करता हुआ, काशी मण्डल के वन में रहता हुआ वह तापस बन गया । (७७) वहाँ, जंगल के निवासी मिथ्या. वाले उसकी सूर्य पूजा करने लगें । देखादेखो काम करने वाले सभी सांसारिक जन तत्त्व की जानकारी नहीं रखते। इति श्रीमान् परम परमेष्ठि के चरणकमल के मकरन्द के सुन्दर रस के आस्वाद से भव्यजनों को प्रसन्न करने वाला, पं० श्री पद्ममेरू के शिष्य पं. श्रीपद्मसुन्दर कवि द्वारा रचित श्रीपाश्वनाथ महाकाव्य में 'श्रीपार्वतीर्थकरगोत्राजेन' .. नामक यह द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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