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________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित स एवायं जिनश्चेति संवित्तिवीक्ष्य जायते । जिना मित्यतः साक्षात् जिनमुद्रामिमां विदुः ॥६५॥ तद्भक्तिर्जिनभक्तिः स्यात् तन्नुतिः श्रीजिनस्तुतिः । तद्ध्यानं तु जिनध्यानं पुण्योत्कर्षफलप्रदम् ॥६६॥ कार्य कारणतुल्यं स्याद् भावो द्रव्यानुरूपगः । तज्जिनप्रतिमाभक्तिः पुण्यकरणकारणम् ॥६७il विमृश्येति सुरः सम्यग्दृष्टिः पूजामचीकरत् । निजधर्मक्रमाचारो दुरुल्लयो महात्मनाम् ॥६८।। शुक्ललेश्यः सार्धहस्तत्रयोत्सेधः स चाऽऽहरेत् । विंशत्याऽब्दसहस्रैश्च मासैर्दशभिरश्वसीत् ॥६९॥ मानसोऽस्य प्रवीचारः पञ्चमक्षितिगोऽवधिः । तावत्क्षेत्र विक्रियाऽस्य बलं तेजोऽप्यवर्तत ॥७॥ कृतसुकृतविपाकप्राप्तदिव्योपभोगः सुरतरुभिरभीष्टप्रार्थितं लम्भितोऽसौ । सुरयुवतिसलीलापाङ्गसङ्गाऽऽत्तरङ्गश्चिरमरमत नानानिर्जराभ्यर्चनीयः ॥७१॥ (६५) यह ही 'जिन' है-ऐसा परिचय देखने से होता है। इस कारण से जिनदेव की मति को साक्षात् जिनदेव की देह (विद्वान) मानते हैं । (६६) इस दृष्टि से उसकी -जिनप्रतिमा को) भक्ति जिनदेव की भक्ति है. उसकी स्तुति श्रीजिनदेव को स्तुति है, उसका कीया हमा ध्यान जिनदेव का ध्यान है, जो उत्कृष्ट पुण्यों के फल को प्रदान करने वाला है। (६७) इस दृष्टि से कारणतुल्य हो कार्य होता है, द्रव्यानुरूप ही भाव होता है । इसलिए उस जिनदेव की प्रतिमा की भक्ति ही पुण्योत्पाद का कारण है । (६८) सम्यग्दृष्टि वाले उस देव ने ऐसा विचार कर पूजा का विधान किया । महात्माओं के लिए स्वधर्म का सदाचार सर्वथा दर्लङघनीय होता है। (६९) शुक्ललेश्यावाला साढे तीन हाथ उँचा वह (देव) बीस हजार वर्षों के बाद माहार करता था और दस माह के बाद श्वास लेता था । (७०) मन के द्वारा ही पूर्ण मैथुन क्रिया सम्पन्न कर लेने वाला वह थो। वह पञ्चमी नरकभूमि तक जानने की क्षमतावाले अवधिज्ञान का धारक था । उतने ही क्षेत्र में उसकी विक्रिया. उसका बल और उसका तेज कार्यक्षम थो । (७१) जिसने पूर्वकृत पुण्यों के परिणाम से दिव्य उपभोगों को प्राप्त किया है, जिसने कल्पवृक्षों से इच्छित फल का लाभ किया है, जिसने देवाजनाओं के अपाङ्गों के संग से आनन्द प्राप्त किया है और जो देवों के द्वारा पूज्य है ऐसे इस देव ने चिरकाल तक रमण किया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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