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भीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य . तत्कल्पद्रुमकल्पितेहितफलां लेभे क्व दिव्यं सुख तत्तत्सागरजीवितावधि गुरोः सर्वोऽपि सोऽनुग्रहः ॥५०॥ मथ जम्बूमति द्वीपे प्राग्विदेहे सुमञ्जुले । सुकच्छामिख्यविजये तद् विद्याधरभूधरे ॥५१॥ पत्तने तिलकाभिख्ये विद्युद्गतिरभन्नृपः । खचरेशोऽस्य कनकतिलका प्राणवल्लभा ॥५२॥ करिदेवस्ततश्च्युत्वा तदगर्भे समवातरत् । नाम्ना किरणवेगाख्यः सुतो जनमनोहरः ॥५३॥ शैशवेऽथ व्यतिक्रान्ते जग्राह सकलाः कलाः ।। कलाचार्यात् कलाभिज्ञः क्रमाद् यौवनमासदत् ॥५४॥. चिरं स पैतृकं राज्यं लब्ध्वा वैषयिकं सुखम् । अन्वभूदन्यदा धर्म शुश्राव श्रद्धया सुधीः ॥५५॥ सूरेः सुरगुरोः पार्वे विरक्तोऽभून्महाशयः । लघूपदेशाद्वैराग्यं जायेत लघुकर्मणाम् ॥५६॥ . तत एव गुरोर्दीक्षां कक्षीचक्रे समाहितः । अधीतकादशाङ्गो यः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः ।।५७॥
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व की सम्पत्ति का तथा उन सागरोपम वर्षों तक के दिव्य सुख का लाभ करना। यह
गुरुका अनुग्रह (कृपा) है ॥ (५१-५२) जम्बूद्वीप के शोभन प्राग्विदेह : क्षेत्र में कच्छमामक विजय में वैताढ्य पर्वत पर स्थित तिलक नामक नगर में विद्युद्गति. मामक विद्याप का एक राजा हुआ । आकाशचार इसी राजा की कनकतिलका नामक प्राणप्यारी परमी यो । (५३) वह देव वहां से च्युत होकर उस कनकतिलका के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। वह मनुष्यों के मन को मोहित करने वाला किरणवेग नामक पुत्र था। (५४) उस पुत्र ने जैशवावस्था के व्यतीत हो जाने पर सम्पूर्ण कलाओं को कलाचार्य से बाल लिया और कलाभिज्ञ हो गया । समय बीतने पर उसने युवावस्था में पदार्पण किया। (५५) उसने चिरकाल तक अपने पिता के राज्य को प्राप्त कर वैषयिक सुख का भनुमय किया। एक दिन बुद्धिमान् उसने श्रद्धा से धर्म का श्रवण किया ॥ (५६) वह महामना सुरगर नामक सूरि के पास विरक्त हो गया । अल्प कर्म वालों को शीघ्र ही उपदेश से वैराग्य उत्पन्न होता है। (५७) उसके पश्चात् उसने ध्यानपूर्वक दत्तचित्त होकर गुरु से दीक्षा ग्रहण की। एकादश अल्मों को उसने पढ़ लिया । वह अपने शरीर से भी निःस्पृह हो गया ॥
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