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पद्मसुन्दरसूरिविरचित
तत्र सार्थजनः सर्वो मुनिं नत्वैत्य भक्तिभाक् । प्रत्यपद्यत सुश्राद्धधर्मं श्रद्धालुरन्वगात् ||४४|| अथाऽन्यदा पयः पातु हृदे प्रावर्ततेभराट् । तज्जम्बाले ममज्जाsसौ पुलिनं यातुमक्षमः || ४५||
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तृष्णातरलितो धावन् सरः पङ्के ममज्ज सः । न प्राप नीरं नो तीरम् करी धिग्विधिचेष्टितम् ॥ ४६ ॥
स चात्र कंमठाऽऽत्मापि प्राप्तः कुक्कुटसर्पताम् । तेन दुष्टेन रुण्डेन दष्टः कुम्भे स वारणः ॥४७॥ उपर्युपरि धावन्ति विपदः शुभसंक्षये । भवन्त्यनर्थाश्छिद्रेषु वर्धतेऽ--क्षये क्षुधा ॥ ४८ ॥
शुभलेश्यः करी मृत्वा सहस्रारे सुरोऽभवत् । तत्र सप्तदशाबुध्यायुर्दिव्यं सौख्यं स चान्वभूत् ॥४९॥
क्व स्तम्बेरम एष काननगतो धर्मोपलब्धि मुनेर्लब्ध्वाऽस्मादणिमादिभृतिसहितां वैमानिकीं सम्पदम् |
(४४) वहाँ स्थित सम्पूर्ण व्यापारी वर्ग ने भक्तियुक्त होकर मुनि के पास आकर, प्रणाम करके अदेय धर्म का स्वीकार किया और ( बाद में ) वह श्रद्धालु वर्ग मुनि के पीछे पीछे या ॥ (४५) इसके पश्चात् दूसरे दिन तालाब में जल पीने के लिए ज्यों ही मजराज उपल हुआ तभी वह जल की कीचड़ में डूब गया तथा किनारे पर पहुँचने में असमर्थ हो गया 4 (४६) प्यास से व्याकुल, दौड़ता हुआ वह हाथी तालाब की कीचड़ में डूब गया। वह डा म तो जल पी सका और न किनारे पर ही पहुँच सका । अहा ! इस देवाचेष्ठा ( विधि के विधान ) को धिक्कार है । (४७) कुक्कुटसर्प की योनि को प्राप्त बड़ी-बहु कपटमा कमठ भी था। उस दुष्ट ने उस हाथी को गण्डस्थल पर काट (ड.) लिया 4. (४८) शुभ पुण्यों के क्षीण होने पर विपत्तियाँ एक के उपर एक लगातार मा गिरती हैं । अन्न की कमी होने पर भूख बढ़ती ही है । अवकाश मिलते ही विपत्तियां भर माती हैं । (४९) शुभलेश्या वाला वह हाथी मर कर सहस्रार देवलोक में देवता बन गया । वहाँ सप्तदशाब्धि (सप्तदशसागरोपम ) आयु वाला होकर उसने दिव्य सुख का अनुभव किया M (५०) कहाँ उस हाथी का जंगल में रहना और कहाँ मुनि से धर्म प्राप्त कर अणिमा आदि. ऐवाली और संकल्प या इच्छा से हो कल्पवृक्ष के द्वारा फल प्राप्त कराने वाली वैमानिक
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