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________________ - हरिवल्लभ भायाणी सकता है यह बात गोविन्द ने अपने सफल प्रयोगों से सिद्ध की है। आगे चलकर हरिभद्र से इमी का समर्थन होगा । और छोटो रचनाओं में तो रड्डा का प्रचलन पंद्रह--सोबा अताब्दी तक रहा है।' . . ५. स्वयम्भू नवीं शताब्दी के महाकवि स्वयम्भू के दो अपभ्रंश महाकाव्यों में से एक था 'हरिवंश पुराण' या 'अरिष्टनेमिचरित्र' ('रिटठणेमिचरिउ')। यह सभी उपलग्न कृतियों में प्राचीनतम अपभ्रश कृष्णकाव्य है। अठारह सहस श्लोक जितने ईत् विस्तार युक्त इस महासाम्य के ११२ सन्धियों में से. ९९ संधि स्वयम्भू विरचित हैं। शेष का कर्तृत्व स्वयम्भू के पुत्र त्रिभुवन का और पंद्रहवीं शताब्दी में हुए यशःकीर्ति भट्टारक का है । हरिवंश के चार काण इस प्रकार १-यादवकाण्ड (१३ सन्धि), कुरुकाण (१९ सन्धि), युद्धकाण्ड (६० सन्धि) उत्तरकाण (१० सन्धि)। कृष्ण जन्म से ले कर द्वारावती-स्थापन तक का वृत्तान्त यादवकाण्ड के चार से ले कर आठ सन्धि तक चलता है। स्वयम्भू ने कुछ अंशों में जिनसेन वाले कथानक का, तो अन्यत्र वैदिक परम्परा पाले कथानक का अनुसरण किया है। कृष्ण जन्म का प्रसंग स्वयम्भू ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है (सन्धि ४, कडवक १२): 'भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन स्वजनों के अभिम न को प्रज्वलित करते हुए असुरविमर्दन जनार्दन का (मनो कंस के मस्तक शूल का) जन्म हुआ । जो सौ सिंहों के पराक्रम से युक्त और अतुलबल था, जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्स से लांछित था, जो शुभ लक्षणों से अलंकृत एवं अंक सौ आठ नानों से युक्त था, और जो अपनी देहप्रभा से आवास को उज्वल करता था, उस मधुपथन को वसुदेव ने उठाया । बलदेव ने उपर छत्रं रखते हुए उसकी बरसात से रक्षा को । नारायण के चरणांगुष्ठ की टक्कर से प्रतोली के द्वार खुल १. 'सिद्धहेम' ८-४-३९१ इस प्रकार है इत्तउं गोप्पिणु सउणि थिउ, पुणु दूसासणु ब्रोप्पि । तो हउं जाणउ एको हरि, बइ मह भग्गई ब्रोप्पि ॥ 'इतना कह कर शकुनि रह गया । और बाद में दुःशासन ने यह कहा कि मेरे सामने आ कर, जब बोले तो मैं जानू कि हरि ऐसा है'। इसमें अर्थ की कुछ अस्पष्टता होते हुए भी इतनी बात स्पष्ट है कि प्रसंग कृष्णविष्टि का है। सष्ट रूप से यह कोई पुरानी महाभारत विषयक रचना में से लिया गया है। २. मल्लवेश में मथुरा पहुँचने पर मार्ग में कृष्ण धोबी को लूट लेता है और सैरन्धी से विलेपन बलजोरी से लेकर गोपसखाओं में बांट देता है-ये दो प्रंसग हिन्दू परंपरा की ही कृष्ण कथा में प्राप्त होते हैं और ये स्वयम्भू में भी हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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