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________________ हरिवल्लभ भायाणी राधा के प्रेमप्रसङ्ग विषयक हैं । इसी कारण गोविन्द कवि का काव्य जनेतर जान पड़ता है। 'स्वयम्भूग्छन्द' में उद्धत गोविन्द के सभी छन्द यद्यपि मात्राएं हैं, ये मूल में रडाओं के पूर्वघटकके रूप में रही होगी ऐसा जान पड़ता है। यह अनुमान हम हरिभद्र के 'नेमिनाथचरित' का भाषार लेकर लगा सकते है एवं हेमचन्द्र के 'सिद्धहेम' के कुछ अपभ्रंश उद्धरणों में से भी हम कुछ संकेत निकाल सकते है। 'स्वयम्भूछन्द' में गोविन्द से लिए गर मत्तविलासिनी मात्राछन्द का उदाहरण कृष्णबालचरित्र का एक सुपसिद्ध प्रसंग विषयक है । यह प्रसंग है कालियनाग के निवासस्थान बने हुए काहिन्दी हद से कमल निकाल कर भेंट करने का आदेश, जो नन्द को कंस से दिया गया था । पद्य इस प्रकार है एहु विसमउ सुठु आएसु पाणंतिउ माणुसहो, दिहिविसु सप्पु कालियउ । केसु वि मारेइ धुउ, कहिं गम्मत कई किलउ ॥ (स्व०च्छं० ४-१०-१) 'यह आदेश अतीव विषम था । एक ओर था मनुष्य के लिए प्राणघालक दृष्टिविष कालिय सर्प, और दूसरी ओर था आदेश के अनादर से कंस से अवश्य प्राप्तव्य मृत्युदण्ड तो अब कहां जाया जायं और क्यों किया जाय ?' ___गोविन्द का दूसरा पद्य जो कि मत्रकरिणी मात्राछन्द में रचा हुआ है राधा की और कृष्ण का प्रेमातिरेक प्रकट करता है। हेमचन्द्र के 'सिद्धहेम' में भी यह उदघृत हुआ है (देखो८-४-४२२:५) और वहीं कुछ अंश में प्राचीनतर पाठ सुरक्षित है। इसके अलावा सिद्धहम' ८-४-४२० : २० में जो दोहा उद्धृत है वह भी मेरी समझ में बहुत करके गोविन्द के ही उसी काव्य के ऐसे ही सन्दर्भ में रचे हुए किसी छन्द का उत्तरांश है । "स्वयम्भूबन्द" में दिया गया गोविन्दकृत वह दूसरा छन्द इस प्रकार है (कुछ अंश हेमचन्द्र वाले पाठ से लिया गया हैं । टिप्पणी में पाठान्तर दिए गए हैं।): एक्कमेक्क1 जइ वि जोएदि हरि सुट्ठ वि आअरेण, तो वि देहि नहिं कहिं वि राही। . . .. को सक्कइ संवरेवि, दवणअण णेहें पलुट्टा (स्व० छं. ४-१०-२) पाठान्तर : (1) सब गोविउ, (2) जोएइ, (3) सुठ्ठ सव्वायरेग, (4) दे दिटूठि, (5) डइट नयणा, (6) नेहिं, (7) पलोट्टउ 'एक-एक गोपी की और हरि यद्यपि पूरे आदरसे देख रहे हैं तथापि उनकी दृष्टि वहीं माती है जहाँ कहीं राधा होती है : स्नेह से झुके हुए नयनों का संवरण कौन कर सकता है भला ? इसी भाव से संलग्न 'सिद्धहेम' में उदघृत दोहा इस प्रकार है- हरि नच्चाविउ प्रंगणइ, विम्हइ पाडिउ लोउ । एवहिं राह-पओहरहं, जं भावइ त होउ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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