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________________ अगरचन्द नाहटा विक्रमात्याणिपादाक्षक्षमावर्षे स्वहर्षतः । तपागच्छस्य यैर्वेषैरारब्धा परिद्यापना ॥१८॥ लक्ष्मीसागरसूरीशैः पूर्व तैः परिद्यापिताः । सत्वहसंयतार्याः श्रीसुधानन्दनसूरयः ॥२१॥ विश्वभूतहिताचारचारित्र्यार्याञ्चतास्ततः । सूरयः सुन्दरा मत्या श्रीमत्सुमतिसुन्दराः ॥२६॥ भयेन्द्रियजयेद्धश्रीश्रमणार्याऽनुरागिणः । स्वशिष्याग्याश्च सूरीशाः श्रीमत्सुमतिसाधवः ॥२७॥ ___ वास्तव में तपागच्छय सोमसुन्दरसूरि के शिष्य सोमदेवसरि हुए उनके शिष्य सुमतिसन्दरसूरि थे। जबकि सुननिसाधुसुरे लक्ष्मोसागरसूरि के पट्टधर बने । इसलिए उनका तो पट्टावलियों आदि में विशेष विवरण मिलता है। उनके सम्बन्ध में संस्कृत और तत्कालीन लोकभाषा में कई कास्य भी रचे गये हैं। पर सुमतिसुन्दरसूरि पट्टधर न होने से के सम्बन्धी विशेष जानकारी नहीं मिलती। सोमदेवसूरि के शिष्य चारित्रहंसगणि के शिष्य सोमचारित्र ने उपरोक्त गुरुगुणरत्नाकरकाव्य संव। १५४१ में बनाया अतः वह एक समकालीन व प्रमाणिक रचना है। उनमें जब सुमतिसुन्दर व सुमतिसाधु को अलग अलग बतलाया है तो दोनों के एक होने का अनुमान करने को आवश्यकता ही नहीं रहती। __ 'सुमतिसाधुसूरि विवाहलो' कवि लावण्यसमय रचित अब से ६५ वर्ष पहले श्री विजयधर्मसूरि संशोधित ऐतिहासिक राससंग्रह में प्रकाशित हआ था उसे यदि प्रो० कान्तिलाल व्यास ध्यान से देख लेते तो यह गलतो उनसे नहीं होतो । ऐतिहासिक रास संग्रह भाग-१ के रास सार पृष्ठ २८ को टिप्पणी में लक्ष्मीसागरसूरे ने जिन ९-१० व ११को आचार्य बनाया उनका स्पष्ट उल्लेख व नाम दिये गये हैं उनमें सुमतिसुन्दरसूरि व सुमतिसाधु के अलग अलग नाम दिये है। अतः प्रो० व्यास ने दोनों आचार्यों को एक मानकर जो सुमतिसाधुसूरि का विवरण सुमतिसुन्दरसूरि के लिए प्रयुक्त कर लिया है वह ठीक नहीं है तथा संशोधनीय। सुमतिसुन्दरसूरि का विशेष परिचय अभी मेरे भी देखने में नहीं आया अतः अन्वेषणीय है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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