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________________ क्या एमतिसुन्दरपरि और मुमतिसाधुवरि एक है? अगरचन्द नाहटाः फार्बस गुजराती सभा, बम्बई-४ से सन् १९५५ में 'पंदरमा शतकनां चार फागुकाब्यो' गामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। इसके सम्पादक हैं प्रो० कान्तिलाल बलदेवराम प्यास, जो ऐल्फिन्स्टन कोलेन बम्बई के गुजराती विभाग के अध्यापक थे। उन्होंने पाटण के जैन भण्डार से मुनि बिनविजयजी के नकल करवायी हुई 'तुमतिसुन्दरसरि फागु' को इस उपरोक्त ग्रन्थ में वर्तमान गुजराती में पद्यानुवाद करके प्रकाशित करवाया है। ३५ श्यों का यह अन्दर फापनाव्य है। जिसमें कवि ने सुमतिसुन्दरसूरि से मन्मथ-कामदेव से कुद्ध करवाके सरिडी की विजय का वर्णन किया है। इस काव्य का कवि ने. 'रससागर पाय यह नाम भी दूसरे पद्य में उपनाम के रूप में दिया है। कवि ने अपना नाम नहीं दिया और मुमतिसुन्दरसूरि का भी कोई विशेष परिचय नहीं दिया । अंत के ३५ - ३६ वें पल में उनको केवल तपगच्छ के सोमसुन्दरसूरि का शिष्य बतला दिया है। उसके जन्म स्थान, संवन, माता-पिता, दोशा संवत और विशिष्ट कार्यों का विवरण इस काम्य में कवि ने कुछ भी नहीं दिया । ३५-३६ वा पद्य इस प्रकार है जिसमें सुपतिमुन्दरसरि के ग और गुरु का नाम पाया जाता है। तवच्छि महिमावत, महीअलि अति गुणवत । सोमदेव मुहरु ए, बुर्सि सुरगुरू ए ॥३५॥ तास सीस सूरिंद, भत्तिई नेमई नदि । मुमतिसुन्दर गुरु ए, जगि जयवंत पुरु ए ॥३६॥ .... इस कागुकालय के सम्पादक प्रो० कान्तिलाल व्यास वैसे गुजराती के बहुत बड़े विद्वान । पर उन्होंने सुमतिसुन्दरसूरि सम्बन्धी विशेष खोज नहीं करके उन्हीं के समकालोन सुमतिसाधुसूरि का परिचय देकर दोनों के एक होने की बात कह दी ।। पर यह नहीं है। दोनों नाम बहुत मिलते जुलते हैं व एक ही गच्छ के एवं एक ही समय हाल से उन्होंने सुमतिसुन्दरसूरि । सुमतिसाधुसूरि को एक मानकर जो सुमतिमधुसूरि का बन्म आदि का परिचय था, वह सुमतिसुन्दरसरि के लिए प्रयुक्त कर लिया । और दोनों के एक ही होने के समर्थन में अग्नी ओर से एक पंक्ति और मोड़ दी कि "सुमतिसाधु ने उपाध्याय पद मळयु त्यारे सुमतिसाधुने स्थाने सुमतिसुन्दर अभिधान धारण कराव्यु हशे, एम अनुमान थई शके छे ।" पर वास्तव में ऐसा अनुमान करने का कोई कारण नहीं हैं। समकालीन सोमचारित्रगणि रचित "गुरुगुगरत्नाकरकाव्यम्" बो अब से ७० वर्ष पहले भो यशोविजय जैन ग्रन्थमाला (२४) द्वारा प्रकाशित हो चुका है, उसके द्वितीय सर्ग के रोक २१ से २९ तक में लक्ष्मीसागरसूरि ने ९ साधुओं को आचार्य पद दिया था उनके नाम दिये हैं। उन नामों में श्लोक २६-२७ में सुमतिसुन्दरसूरि व सुमतिसाधुसरि दोनो को स्पष्टतः अलग अलग बतलाये हैं। उनके सम्बन्धित श्लोक इस प्रकार है- ., Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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