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________________ माण्डवगढ के महामन्त्री पेथडशाह ने कितने जिन-मन्दिर बनवाये ? म. विनयसागर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जयपुर के संग्रहालय का भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्वीकृत पद्धति से संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के हस्तलिखित ग्रन्थों का नवीन सूचीपत्र बनाते समय ग्रंथांक ७४६० (२) पर आचार्य भी सोमतिलकसरि रचित पृथ्वीधर साधु (पथदशाह) कारित चैत्य स्तोत्र को विक्रम की १६ वीं शताब्दी की प्रति प्राप्त हुई । इस स्तोत्र में पेंथदशाह के धामिक सुकृत्यों, औदायर्यादि गुणों और धर्मनिष्ठ जीवन की श्लाघा करते हुए बताया। कि पेथड़ ने ७८ नवीन जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया । कौन-कौन से तीर्थंकरों के किस-किस स्थान पर मन्दिर बनवाए, इनका तार्थ कर नाम और स्थळ-नाम निर्देश के साथ इस स्तोत्र में उल्लेख हुआ है, यह इस स्तोत्र का वैशिष्ट्य है। इस स्तोत्र के प्रणेता श्री सोमतिलकसरि है जो पेथद के धर्मगुरु श्री धर्मपोषसूरि के पौत्र पट्टधर भौर श्री सोमप्रभसूरि के पट्टधर आचार्य हैं । तपागच्छ पट्टावली के अनुसार इनको जन्म वि० सं० १३३५, दीक्षा १३६९, माचार्य पद १३७३, और स्वर्गवास १४२४ में हुआ था । ये बडे प्रभाविक और विद्वान आचार्य थे । इनके द्वारा निर्मित बहद्रव्य क्षेत्रसमास प्रकरण, सप्ततिशतस्थानक प्रकरण और भनेक स्तोत्र प्राप्त है। माण्डवगढ के महामन्त्री साधु पृथ्वीधर (प्रसिद्ध नाम पेथइशाह ) के नाम से बैन समान सुपरिचित है । जिन मन्दिर निर्माण, स्वधर्मीबन्धुओं का पोषण, गुरुभक्ति, शास्त्रभक्ति, दानशाला निर्माण आदि सुकृत्यों के प्रसंगों पर आज भी साधुवर्ग व्याख्यामादि में पेंथाशाह का उद्धरण देते हैं और उनका कथानक कह कर धर्मकार्यों की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं। . पेथइशाह ओसवालजातीय देदा के पुत्र थे। ये माण्डवगढ के परमारपेशीवा महागण बयसिंह के महामंत्री थे। इनका समय १३ वौं शताब्दी की अन्तिम चरण और ४थी यतो का पूर्वार्द है । पेथड़ के सुकृतकार्यों का कार्यकाल १३१८ से १३३८ के मध्य का है। देदा, पेथद और इनका पुत्र झांझण तीनों ही धर्मनिष्ठ, भावगुणों के धारक-पालक और परम गुरुभक्त थे । इनके सुकृत क्रियाकलापों का संविस्तार-वर्णन श्रीरत्नेमण्यन (रत्नमन्दिर) गणि रचित सुकृतसागर काव्य (वि० सं० १५१७) और उपदेशतरंगिी के तरंग २-३ में प्राप्त है । इन ग्रन्थों के आधार से पेथड़ का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : नान्दुरी पुरी में देद नामक निर्धन वणिक् रहता था। एक योगी में सुवर्णरसमिति करके उसे देद को प्रदान की उससे वह धनाढ्य श्रीमंत हो गया। किसी की ही शिकायत से वहाँ के राजा ने देद को बन्दीगृह में डाल दिया । स्तंभन पावभावकीलांब से वह छूटा । देद नांदुरीपुरी का त्याग कर विद्यापुर (बोचापुर ) पाकर रहने लगा। वहाँ से वह खंभात मया और स्तभन पार्श्वनाथ की पूजा कर, स्वर्ण दान करने से समाव द्वारा किनकगिरि बिरुद प्राप्त किया । वहाँ से वह किसी कार्यवश देवगिरि गया और वही विद्याक धर्मशाला का निर्माण करवाया ।' देद का पुत्र पथद हुआ। । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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