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________________ खजुराहो की जैन मूर्तियां कुबेर और अम्बिको निरूपित हैं । कुबेर के एक हाथ में मुद्राकोश है, और द्विमुचा अम्बिका माम्रलंबी और बालक से युक्त हैं। जिन-संयुक्त मूर्तियों के अतिरिक्त कुबेर एवं अम्बिका की स्वतन्त्र मूर्तियां भी मिली । यक्षों में केवल कबेर ( या सर्वानुभूति) को ही स्वतन्त्र मतियां मिली है। इनमें चतर्भ एवं ललितमुद्रा में विराजमान कुबेर के करों में अभयमुद्रा, पद्म, फल एवं मुद्राकोश प्रदर्शित है। चरणों के समीप निधि के सूचक दो घट बने हैं। जैन परम्परा की प्राचीनतम यक्षी अम्बिका की खजुराहों में सर्वाधिक स्वतन्त्र मर्तियां है। पार्श्वनाथ मन्दिर की दक्षिण जंघा की द्विमुजी मूर्ति के अतिरिक्त अन्य सभी उदाहरणों में अम्बिका चतुर्भुजा हैं । द्विभुजी मूर्ति में अम्बिका के एक हाथ में आम्रलु बि है और दूसरे में बालक । ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में अम्बिका के चतुर्भुज स्वरूप का निरूपण नहीं हआ हैं। इन ग्रंथों में अम्बिका का सदैव द्विभुनी रूप में ही निरूपण हया है। । मंतु जी मूर्तियों में शीर्षभाग में नेमिनाथ की छोटी मूर्ति एवं आम्रवृक्ष की टहनियों से युक्त अम्बिका के ऊपरी हाथों में सामान्यतः पद्म य पद्म में लिपटी पुस्तिका प्रदर्शित है। केवल मन्दिर २७ की एक मूर्ति में ऊर्ध्वकरों में अंकुश एवं पाश हैं, जो स्पष्टतः श्वेताम्बर परम्परा से निर्देशित ।। सिंहवाहना अम्बिका के निचले हाथों में सर्वदा आम्रलुबि और बालक (स्तनस्पर्श करता) प्रदर्शित हैं। समोप ही दूसरे बालक को भी दिखाया गया है। पुरातात्त्विक संग्रहालय, खजुराहो की एक विशिष्ट चतुर्भुजी मूर्ति ( क्रमांक १६०८-११ वीं शती ई.) में अम्बिका के साथ द्विभुज यक्ष-यक्षी युगल तथा कुछ अन्य देवियों का अंकन हुआ है, जो स्पष्टतः अम्बिका की विशेष प्रतिष्ठा का परिचायक है। यक्ष अभयमुद्रा एवं मुद्राकोश और यक्षी अभयमुद्रा एवं कलश से युक्त है। पार्श्वनाथ ___२३ वें जिन पार्श्वनाथ का लांछन सर्प है और यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र ( या पार्श्व ) और पद्मावती है । इनके शीर्षभाग में सात सर्प फों के छत्र के प्रदर्शन की परम्परा है। खजुराहो में इनकी १५ मूर्तियां हैं, पर किसी में पीठिका पर सर्प लांछन नहीं बना है। सात सर्प फणों का छत्र सभी उदाहरणो में उत्कीर्ण हैं। पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मूर्तियां अधिक हैं। मूलनायक के शरीर के पिछले भाग में सामान्यतः सिर से पैर तक सर्प की कुण्डलियां प्रदर्शित हैं। सर्पफणों के कारण ही पार्श्वनाथ के साथ प्रभामण्डल नहीं दिखाया गया। कायोत्सर्ग मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का निरूपण नहीं हुआ है । केवल ध्यानस्थ मूर्तियो में तीन उदाहरणों में यक्ष-यक्षी को मूर्तियां बनी है । दो उदाहरणों में पार्श्वनाथ के एक और चामरधारी धरणेन्द्र और दूसरी ओर छत्रधारिणी पद्मावती की मूर्तियां उत्कीर्ण है। इन दोनों के सिरों पर सर्पफर्गों का छत्र प्रदर्शित है। दो सुन्दर मूर्तियां ( ११ वीं शती ई० ) क्रमशः मन्दिर और जार्डिन संग्रहालय ( क्रमांक १६६८ ) में हैं। इन ध्यानस्थ मूर्तियों में चामरधारी धरणेन्द्र एव छत्रधारिणी पद्मावती आमूर्तित हैं। पुरातात्त्विक संग्रहालय, खजुराहो (क्रमांक १६१८) का एक मूर्ति में सर्फफणों के छत्र वाला द्विभुज यक्ष नमस्कार भद्रा में है। तोन सर्पफणों के छत्र वाली द्विभुजी यक्षी के अवशिष्ट बायें हाथ में सर्प प्रद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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