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________________ Review प्रथम अध्याय में दार्शनिक ईश्वरवाद के मूल की खोज करने का प्रामाणिक प्रयत्न किया गया है तथा दार्शनिक सम्प्रदायों में ईश्वरवाद का विहंगावलोकन दिया गया है। द्वितीय अध्याय में गौतम, वात्स्यायन और उद्योतकर की ईश्वरविषयक मान्यता का विवरण प्रस्तुत किया है । तृतीय अध्याय में जो विषय आते हैं वे हैं-धर्मकोर्ति द्वारा ईश्वर साधक युक्तियों का खंडन तथा धर्मकीर्ति की ईश्वरबाधक युक्तियाँ, अविद्धकर्ण की ईश्वरसाधक युक्तियाँ, शान्त. रक्षित द्वारा किया गया अविद्धकर्ण के मत का खंडन, प्रशस्तमति (प्रशस्तपाद ) की ईश्वरसाधक युक्तियाँ तथा शान्तरक्षित. द्वारा उनका खण्डन, शान्तरक्षित द्वारा उद्योतकर के मत का खण्डन, प्रकृति तथा ईश्वर उभयकारणवाद का स्थापन तथा शान्तरक्षित द्वारा उसका खण्डन, वेदवादी पुरुषकर्तृत्ववाद का स्थापन तथा शान्तरक्षित द्वारा उसका खण्डन, कल्याणरक्षित की ईश्वरभंगकारिका का सारांश । चतुर्थ अध्याय में ईश्वर के विषय में वाचस्पति, त्रिलोचन, शतानन्द, वित्तौक, शंकर और न्यायभूषणकार की मान्यताएँ दी गई हैं । पंचम अध्याय में वाचस्पति, त्रिलोचन आदि के मत का ज्ञानश्रीमित्र ने जो प्रतिवाद किया है वह सविस्तर दिया गया है । षष्ठ अध्याय में ईश्वर की सिद्धि में आचार्य उदयन की युक्तियाँ व्याख्यायित हुई हैं अर्थात् 'कार्यायोजनधृत्यादेः' कारिका का विस्तृत व्याख्यान दिया गया है; ईश्वर शरीरी है या अशरोरी इस प्रश्न की चर्चा की गई है तथा ईश्वरवाद में आचार्य उदयन के प्रदान की पर्यालोचना भी की गई है। नित्यमुक्त नगकर्ता ईश्वर को गौतम मानते हैं ऐसा उनके सूत्रों (४.१.१९-२१) से नितान्त फलित नहीं होता। इससे विपरीत वे ऐसे ईश्वर को न मानते हो उसकी महती संभावना है । इन तीन सूत्रों में पुरुषकर्म और उस के फल के विषय में ईश्वर का क्या कार्य है वह बताया गया है । पुरुष के कर्मों का वैफल्य दिखाई देने से फल का कारण ईश्वर है, कर्म नहीं ( ४.१.१९)। उपयुक्त सिद्धान्त असत्य है क्योंकि वस्तुतः कर्मफल का कारण कर्म नहीं किन्तु ईश्वर ही हो तो कर्म न करने पर भी हमें इच्छित फल मिलना चाहिए: किन्तु कहीं भी कर्म किये बिना उसका फल मिलता हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता (४.१.२०)। कर्म ईश्वरकारित होने से उक्त दोनों सिद्धान्त तर्कहीन है, असत्य है ( ४.१.२१)। प्रथम में कर्मफल के नियत सम्बन्ध को अवगणना है और दूसरे में ईश्वर को । वस्तुतः कर्मफल के बीच नियत सम्बन्ध है ही। अमुक कर्म करो और वह अपना फल देगा ही, कृत कर्म को फलने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं यह बात सच है फिर भो इच्छित फल प्राप्त करने के लिए कौन सा कर्म किया जाय यह जानना जरूरी है । यह ज्ञान लौकिक विषय में तो उस उस विषय के जानकार देते हैं किन्तु राग आदि दोषों से मुक्त होने के लिए किस कक्षा में कौन सा कर्म करना, कैसी साधना करनी चाहिए इसका ज्ञान रागादि दोषो का नाश कर जो दोषमुक्त और सर्वज्ञ हुआ है ऐसा ईश्वर ही करा सकता है । ईश्वर केवल उपदेष्टा है, मार्गदर्शक है । कर्म-फल के नियत सम्बन्ध का ज्ञान करानेवाला है । उस अर्थ में ही वह कर्मकारयिता है । वह बलात् किसी से कर्म नहीं करवाता । वैद्य केवल दवा बताता है किन्तु हम ऐसा ही कहते हैं कि वैद्य ने रोग मिटाया । उसो तरह ईश्वर भी राग आदि रोग का ईलाज बताता है फिर भी हम कहते हैं कि, ईश्वर ने यह रोग मिटाया, ईश्वर ने फल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520759
Book TitleSambodhi 1980 Vol 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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