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श्रावक कविओनी केटलीक अप्रकट गुजराती रचनाओ चऊदराज करिउ भांगणूय, कर्म नटोवु साथि, नव नव वेसि नचावीउ, ए स्वामी, दिवस नइ राति. १२ कर्म सबल हूं नरग माहि कुंभी ऊपन्नु, कलीय कली करी काढीउ, वली देह नीपन्नउ, भुइ सली ते वज्रमइ, तेणइ तनु वधाइ, तरसिउ मागह नीर केवि ऊतरू उपाइ. १३ भगनिवर्ण करी पूतलीय, तेणइ दाझवीउ अंग,
भसुर पधारई ऊपरइ ए, परखी करतु संग. १० . : नमि ऊछालइ मसुर एक, समली थई झडपह,
पडतां धरह त्रिसुल एक, अंग सघलां कापइ, . पारानी परि देह मिलइ, विसनी परि मारइ, भार सहस धरि वोतरिइ, वैतरणी उतारइ. १५ कोडि वरस जउ दुक्ख कहूंय, तु नवि मावइ छेक, साते नरगे मइ भोगव्या ए, सागर आय अनेक. १६ . भमत भमंतु देवलोकि जई हूं भवतारिउ, पुण्यहाण तिहां करउं सेव, तीणइ दुक्खई भरिउ, . परदेवी देखी सरूप कामारसि वाहिउ, सुरपति कीधु कोप सबल, पज्जाउधि वाउ. १७ रीव करी मइ मास छय, संकोवां अंग आप, ठामि ठामि जे दुक्ख सहिया ए, विसमु कर्मविपाक. १८ पुण्यि योगि मार्ज देसि उत्तम भव हाधु, बालापण वउली करी विषयारसि बाधु, क्रोधि लोभ अहंकार करी हूं आप वखाण', माया कुडी कुबधि लगइ परिवंची जाणूं. १९ दान शील तप भावना ए, धर्म न कीधउ संग, रामा रामा धन तणु ए, आठ पहुर मनरंग. २० त्रिष्णा तणिइं विणज खरि मह जीव विणास्या, परनंषा करी अपार, कूडा मह भास्या, संभक्रिया बगध्यान करी परधन मई लीघां, परनारी सह गमन पाप तेहई मई कीघां. २१
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