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जैनदर्शन में तर्कप्रमाण ऐन्द्रिक संवेदन--अवग्रह--संशय--ईहा-अवाय
धारणा--स्मृति---प्रत्यभिज्ञा---तर्क--अनुमान इसमें संशय और धारणा को छोड़कर शेष सभी को प्रमाण माना है- यद्यपि ये किस मर्थ में प्रमाण है यह एक अलग प्रश्न है- जिस पर किसी स्वतन्त्र निबन्ध में विचार किया जा सकता है, किन्तु मैं अभी इस प्रश्न को हाथ में लेना नहीं चाहूँगा । यहाँ मूल प्रश्न यह है कि ईहा से स्वतंत्र तर्क को प्रमाण क्यों मानना पड़ा- मेरी दृष्टि में इसका मूल आधार व्याप्ति ग्रहण की समस्या ही रहा होगा। अनुमान के लिए व्याप्ति ग्रहण एक अनिवार्य पूर्व . शर्त ( Precondition) है और ईहा से व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं था । प्रमाण मीमांसा में ईहा की चर्चा के प्रसंग में यह प्रश्न उठाया गया था कि यदि ईहा और तर्क एक ही अर्थ के द्योतक हैं तो फिर ईहा से पृथक् तर्क को पृथक् प्रमाण क्यों माना गया ? इसके उत्तर में कहा गया कि ईहा वर्तमान में उपस्थित अर्थ को ही अपना विषय बनाती है, अतः उसके आधार पर त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान सम्भव नहीं है । पुनः ईहा प्रत्यक्ष के विषय को अर्थात् मूर्त वस्तुको ज्ञान का विषय बनाती है, किन्तु व्याप्ति ज्ञान या कार्य-कारणभाव.. या जाति के प्रत्यय अमूते है, अतः वे ऐन्द्रिक ज्ञान के विषय नहीं बनते । तर्क एवं ईहा के स्वरूप में भी अन्तर है- (१) सर्वप्रथम ईहा विशेष का ज्ञान है जबकि तर्क सामान्य का ज्ञान है, (२) दूसरे ईहा वस्तुके गुण धर्मों का ज्ञान है जबकि तर्क सम्बन्धों का ज्ञान है,. (३) तीसरे ईहा निर्णय के पूर्व की या संशय और निर्णय के मध्य निर्णयोन्मुख दोलन की अवस्था है जबकि तर्क निर्णयात्मक है, (४) चौथे ईहा ऐन्द्रिक और बौद्धिक ज्ञान है जबकि तर्क में अन्तःप्रज्ञा का तत्त्व होता है, (५) पांचवे ईहा वर्तमान कालिक ज्ञान है जबकि तर्क: त्रैकालिक ज्ञान है । इस प्रकार ईहा और तर्क में पर्याप्त अन्तर है, क्योंकि जहाँ तर्क न्याप्तिग्राहक है वहाँ ईहा व्याप्ति-ग्राहक नहीं है । अतः तर्क को ईहा से स्वतन्त्र प्रमाण इसलिये मानना पड़ा कि ईहा का अन्तर्भाव तो लौकिक प्रत्यक्ष में होता है, जबकि तर्क का अन्तर्भाव परोक्ष ज्ञान में किया गया है । अतः दोनों को अलग अलग प्रमाण मानना आवश्यक हैं।
ईहा का प्रतीकात्मक स्वरूप भी तर्क से भिन्न है । ईहा के पूर्व जो संशय होता है वह कार्य-कारण, अविनाभाव या आपादन के सम्बन्ध में नहीं होकर केवल विधेय के सम्बन्ध में होता है। जैसे 'यह स्वर स्त्री का है या पुरुष का ?' 'यह स्तम्भ है या पुरुष ?' ऐसे वाक्यों में संशय इस बारे में भी होता है कि विधेय के इन वैकल्पिक वर्गों में उद्देश्य किस वर्ग को" सदस्य है ? अतः ईहा का जो सुझावात्मक निर्णय होता है वह आपादान के बारे में न होकर वर्ग-सदस्यता या विधेय-सम्बन्ध के बारे में होता है। उसका प्रतीकात्मक रूप होता है। ... उ, Cसं. (वि, Vवि. )- संशय - वि.
-विकल्प निषेध .:. उ सं. ( वि, ) -सम्भावित निर्णय (ईहा )
जबकि1 उ = उद्देश्य
वि = विधेय
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