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सागरमल जैन
इस प्रकार व्याप्ति ज्ञान के ग्राहक तर्क में एक अन्त: प्रज्ञात्मक तत्त्व होता है जो प्रत्यक्ष के अनुभवों को अपना आधार बनाकर अपना त्रैकालिक निर्णय देता है या सामान्य की स्थापना करता हैं ।
तर्क तथा आगमन की प्रकृति को लेकर अभी काफी विवाद चल रहा है । डा० बारलिंगे. तर्क को आपादन ( Implication) या निगमनात्मक मानते हैं । उन्होंने बड़ी गम्भीरता के साथ इस मत का प्रतिपादन अपने ग्रन्थ Modern Introduction to Indian Logic में किया है। इसके विपरीत डा० भारद्वाज ने विश्व दर्शन कांग्रेस के देहली अधिवेशन में पठित अपने निबन्ध में न्याय सूत्र के टीकाकारों के मत की रक्षा करते हुए तर्क को व्यभिचारशंका प्रतिबन्धक (Tarka as contrafactual conditional) माना है जो कि उसके आगमनात्मक पक्ष पर बल देता है । किन्तु ऐसा तर्क व्याप्ति ग्राहक नहीं बन सकता केवल सहयोगी बन सकता अतः उसमें अन्तःप्रज्ञात्मक पक्ष को स्वीकार करना. आवश्यक है । स्वयं डा० बारलिंगे ने तर्क को अनानुभविक (Non-empirical) माना है । वस्तुतः व्याप्तिग्रहण के लिए एक अनानुभविक पद्धति चाहिए। इसीलिए न्याय दार्शनिकों ने व्याप्ति ग्रहण का अन्तिम एवं सीधा उपाय सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति को माना जो कि अनानुभविक एवं अन्तःप्रशात्मक है। डा० बारलिंगे ने भी स्वयं इस बात को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं- It is not aiso ordinary perception because there is no Indriya sannikarsha with smoke in all the cases. उन्होने इस बात को भी स्पष्ट किया हैं कि अमूर्त जाति सम्बन्ध के ज्ञान के लिए ऐसी हो अनानुभविक पद्धति आवश्यक है। जैन दार्शनिकों ने तर्क को एक अतीन्द्रिय अर्थात् ऐन्द्रिक अनुभवों पर आधारित किन्तु उनसे पार जाने वाला, उनका अतिक्रमण करने वाला मानकर इस आवश्यकता की पूर्ति कर ली है। डा० प्रणवकुमार सेन ने विश्व दर्शन परिषद् के देहली अधिवेशन में प्रस्तुत अपने लेख में इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि समस्या चाहे आगमन की हो या निगमन की, बिना अन्तःप्रज्ञात्मक आधार के सुलझाया नहीं जा सकता है (देखिये Knowledge, Culture and Value pp. 4150) जैन दार्शनिकों के अनुसार व्यक्ति और जाति में कथंचित् अभेद है अतः तर्क अपनी अन्तः प्रज्ञात्मक शक्ति के द्वारा विशेष के प्रत्यक्षीकरण के समय ही सामान्य को भी जान लेता है और इस प्रकार विशेष के प्रत्यक्ष के आधार पर सामान्य वाक्य की स्थापना कर सकता है । यह कार्य अन्तःप्रज्ञा या तर्क के अतिरिक्त प्रत्यक्ष अनुमान आदि किसी भी अन्य प्रमाण के द्वारा सम्भव नहीं है । ईदा का स्वरूप और तर्क से उसकी भिन्नता :
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यह सत्य है कि जैन दार्शनिकों ने प्रारम्भ में ईहा और तर्क को पर्यायवाची माना था किन्तु प्रमाण युग में ईहा और तर्क दोनों स्वतन्त्र प्रमाण मान लिये गये थे । यद्यपि यह प्रश्न स्वतन्त्र रूप से विचारणीय अवश्य है कि जैन दार्शनिकों ने ईहा के स्वरूप को, जिस रूप में प्रस्तुत किया है, उस रूप में क्या उसे प्रमाण माना जा सकता है ? क्योंकि ईहा निर्णयात्मक ज्ञान न होकर मात्र ज्ञान प्रक्रिया ( process of knowledge ) है । जैन दर्शन में प्रत्यक्ष से अनुमान तक की ज्ञान प्रक्रिया का क्रम इस प्रकार है
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