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________________ जैन कवि का कुमारसंभव पुष्ट-पूरित कर ग्यारह सों का विशाल वितान खड़ा कर दिया है । वर्णनप्रियताकी यह प्रवृत्ति काव्य में आद्यन्त विद्यमान है। प्रथम छह सगं अयोध्या, काव्यनायक के शैशव एवं यौवन, वधुनों के अलंकरण, वैवाहिक रीतियों, रात्रि, चन्द्रोदय, षड् ऋतु के वर्णनों से भरे पड़े है। यह ज्ञातव्य है कि काव्य के यत्किंचित् कथानक का मुख्य भाग यहीं समाप्त हो जाता है । शेष पांच सर्गों में से स्वप्नदर्शन (सप्तम सर्ग) तथा उनके फल-कथन (नवम सर्ग) का ही मुख्य कथा से सम्बन्ध है । आठवे तथा नवे सर्गो की विषयवस्तु को एक सर्ग में आसानी से समेटा जा सकता था। दसवां तथा ग्यारहवां सर्ग तो सर्वथा अनावश्यक है। यदि काव्य को नौ सर्गों में ही समाप्त कर दिया जाता तो शायद यह अधिक अन्वितिपूर्ण बन सकता। ऋषभदेव के स्वप्न फल बताने के पश्चात् इन्द्र द्वारा उसकी पुष्टि करना न केवल निरर्थक है, इससे देवतुल्य नायक की गरिमा भी आहत होती है । इस प्रकार काव्यकथा का सूक्ष्म तन्तु वर्णन-स्फीति के भार से पूर्णतः दब गया है । वस्तुतः काव्य में इन प्रासंगिकअप्रासंगिक वर्णनों की ही प्रधानता है । मूल कथा के निर्वाह की ओर कवि ने बहुत कम ध्यान दिया है। उसके लिये वर्ण्य विषय की अपेक्षा वर्णन शैली प्रमुख है ! मानव-हृदय कः विविध अनुभूतियों का रसात्मक चित्रण करने में जयशेखर सिद्धहस्त है, जिसके फलस्वरूप कुमारसम्भव सरसता से आर्द्र है । शास्त्रीय परम्परा के अनुसार शंगार को इसका प्रमुख रस माना जा सकता है यद्यपि अंगी रस के रूप में इसका परिणाम नहीं हुआ है । जैन कुमारसम्भव में शूगार के कई सरस चित्र देखने को मिलते हैं। काव्य में शृंगार की मधुरता का परित्याग न करना पवित्रतावादी जैन कवि की बौद्धिक ईमानदारी है। ऋषभदेव के विवाह में आते समय प्रियतम का स्पर्श पाकर किसी देवांगना की मैथुनेच्छा जाग्रत हो गयी । भावोच्छ्वास से उसकी कंचुकी टूट गयी । वह कामवेग के कारण विह्वल हो गयी, फलत: वह प्रिय को मनाने के लिये उसकी चाटुता करने लगी ? उपात्तपाणिस्त्रिदशेन वल्लभा श्रमाकुला काचिदुदंचिकंचुका ! वृषस्यया चाटुशतानि तन्वती जगाम तस्यैव गतस्य विघ्नताम् ॥४।१० नवविवाहित ऋषभकुमार को देखने को उत्सुक एक पुर-युवति की अधबंधी नीवी, दौड़ने के कारण खुल गयी। उसका अधोवस्त्र नीचे खिसक पडा, किन्तु उसे इसका भान भी नहीं हुआ । वह प्रेम पगी नायक की झलक पाने के लिए दौड़ती गयी और जन समुदाय में मिल गयी! कापि नार्धयमितश्लथनीवी प्रक्षरन्निवसनापि ललज्जे । नायकानननिवेशितनेत्र जन्यलोकनिकरेऽपि समेता ॥५॥३९. . काव्य में वात्सल्य, भयानक तथा हास्य रस श्रृंगार के पोषक बन कर आए हैं। ऋषभ के शैशव के चित्रण में वात्सल्य रस की छटा दर्शनीय है । शिशु ऋषभ दौड़ कर पिता को चिपट जाता है। उसके अंगस्पर्श से पिता विभोर हो जाते हैं। हर्षातिरेक से उनकी आँखें बन्द हो जाती हैं और वे 'तात तात' की गुहार करने लगते हैं । दूरात् समाहूय हृदोपपीडं माद्यन्मुदा मीलितनेत्रपत्रः। . अथांगजं स्नेहविमोहितात्मा यं तात तातेति जगाद नाभिः ॥१।२८ पौर युवतियों के सम्भ्रम-चित्रण के अन्तर्गत, निम्नोक्त पद्य में हास्य रस की रोचक अभिव्यक्ति हुई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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