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________________ ४६ सत्यव्रत सम्भ्रम-चित्रण' संस्कृत महाकाव्य की वह रूदि है जिसका जैन कवियों ने साग्रह तथा मनोयोगपूर्व निर्वाह किया है यद्यपि कुछ काव्यों में वह स्पष्टतः हठात् ठूसी गयी प्रतीत होती है । दोनों कुमारसम्भवों में वर्ण्य विषयों के अन्तर्गत रात्रि, चन्द्रोदय तथा ऋतुवर्णन को स्थान मिला है । यद्यपि जैन कवि के वर्णनों में कालिदास की-सी मार्मिकता ढूंढना निरर्थक है तथापि ये जैनकुमारसम्भव के वे स्थल हैं जिनमें उत्कृष्ट काव्य का उन्मेष हुआ है । दोनों काव्यों में देवी नायकों को मानवरूप में प्रस्तुत किया गया है भले ही जैन कवि ऋषभचरित की पौराणिकता से कुछ अधिक अभिभूत हो । कालिदास के कुमारसम्भव के अहम सर्ग का स्वच्छन्द सम्भोगवर्णन पवित्रतावादी जैन यति को ग्राह्य नहीं हो सकता था, अतः उसने नायक-नायिका के शयनगृह में प्रवेश तथा सुमंगला के गर्भाधान के द्वारा इस ओर संयत संकेत मात्र किया है। यह स्मरणीय है कि दोनों काव्यों में पुत्रजन्म का अभाव है, फलतः उनके शीर्षक कथानक पर पूर्णतः घटित नहीं होते । नायक-नायिका के संवाद को योजना दोनों काव्यों में की गयी है । परन्तु कालिदास के उमा-बड-संवाद की गणना, उसकी नाटकीयता एवं सजीवता के कारण, संस्कृत काव्य के सर्वोत्तम अंशों में होती है जबकि सुमंगला तथा ऋपम का वार्त्तालाप साधारणता के धरातल से ऊपर नहीं उठ सका है। पाणिग्रहण सम्पन्न होने के उपरान्त कुमारसम्भव में हिमालय के पुरोहित ने पार्वती को पति के साथ धर्माचरण का उपदेश केवल एक पचं ( ७।८२) में दिया है। जैन कुमारसम्भव में इन्द्र तथा शची क्रमशः वरवधू को पति-पत्नी के पारस्परिक सम्बन्धों तथा कर्त्तव्यों का विस्तृत बोध देते हैं । दोनों काम्पों में विवाह के अवसर पर प्रचलित आचारों का निरूपण किया गया है। जैन कुमारसम्भव में उनका वर्णन बहुत विस्तृत है। कृत्रिमता तथा अलंकृति -प्रियता के युग में भी जयशेखर की शैली में जो प्रसाद तथा आकर्षण है, उस पर भी कालिदास की शैली की सहजता एवं प्राञ्जलता की छाप है । समीक्षात्मक विश्लेषण जैन कुमारसम्भव के कथानक की परिकल्पना तथा विनियोग ( Conception and treatment ) निर्दोष नहीं कहा जा सकता ! फलागम के चरम बिन्दु से आगे कथानक के विस्तार तथा मूल भाग में अनुपातहीन वर्णनों का समावेश करने के पीछे समवर्ती काव्य परिपाटी का प्रभाव हो सकता है किन्तु यह पद्धति निश्चित रूप से कथावस्तु के संयोजन में कवि के अकौशल की द्योतक है । जयशेखर के लिये कथा वस्तु का महत्त्व आधारभूत तन्तु से बढ़ कर नहीं, जिसके चारों ओर उसकी वर्णनात्मकता ने ऐसा जाल बुन दिया है कि कथासूत्र यदा कदा ही दीख पड़ता है। जैन कुमारसम्भव का कथानक इतना स्वल्प है कि यदि निरी कथात्मकता को लेकर चला जाए तो यह तीन-चार सर्गों से अधिक की सामग्री सिद्ध नहीं हो सकती । किन्तु जयशेखर ने उसे वस्तुम्पापार के विविध वर्णनों, संवादों तथा स्तोत्रों से Jain Education International ६. हम्मीर महाकाव्य, ९/५४-७१, सुमतिसम्भव (अप्रकाशित), ४/२५-३२, हीरसौभाग्य आदि. ७. जैन कुमार. ६११-२२, ५२-७१, कुमारसम्भव, ७५३-७४ ३ २५-३४ ८. जैन कुमारसम्भव, ६।२२, ७४ ९. वही, ५/५८- ८३. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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