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मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारो
यक्ष - यक्षी युगल केवल दो ही उदाहरणों ( मन्दिर : १९, लगभग १९ वीं शती) में निरूपित हैं । प्रत्येक तीर्थंकर के साथ स्वतंत्र यक्ष-यक्षी युगल उत्कीर्ण हैं । खजुराहो की द्वितीर्थी मूर्तियों के विपरीत देवगढ़ में प्रत्येक तीर्थंकर से सम्बद्ध यक्ष-यक्षी लाक्षणिक विशेषताओं की दृष्टि से स्वतंत्र हैं । एक मूर्ति में दोनों जिनों के मस्तक खण्डित हैं, पर स्कंधों को छूती केशवल्लरियां सुरक्षित हैं। परिकर में तीन लघु जिन आकृतियां चित्रित हैं, जिनमें से एक पांच सर्पणों (सुपार्श्वनाथ ) के छत्र से युक्त है । यद्यपि दोनों मूलनायकों के आसनों पर स्वतन्त्र लांछन उत्कीर्ण हैं, किन्तु दाहिने पार्श्व को आकृति का लांछन अस्पष्ट है । बायीं ओर की जिनआकृति सिंह लांछन ( महावीर ) से युक्त है । महावीर के द्विभुज यक्ष की दक्षिण भुजा खण्डित है, और वाम में फल स्थित है । द्विभुज यक्षी के करों में अभयमुद्रा और मातुलिंग प्रदर्शित है । दाहिनी ओर की जिन आकृति के यक्ष यक्षी भी द्विभुज हैं । यक्ष की भुजाओं में गदा एवं फल प्रदर्शित है। यक्षी की अवशिष्ट दाहिनी भुजा में फल स्थित है । मन्दिर : १९ की दूसरी मूर्ति में भी दोनों मूलनायकों के मस्तक खण्डित हैं, पर स्कंधों को छूती केशवल्लरियां सुरक्षित हैं । उनके आसनों पर वृषभ ( ऋषभनाथ ) और गज ( अजितनाथ - दूसरे जिन ) लांछन अंकित हैं । बायीं ओर की गज लांछन-युक्त अजितनाथ मूर्ति में यक्ष-यक्षी गोमुख - चक्रेश्वरी हैं । उल्लेखनीय है कि गोमुख चक्रेश्वरी ऋषभनाथ के पारम्परिक यक्ष-यक्षी हैं । प्रस्तुत मूर्ति में कलाकार ने भूल से गोमुख-चक्रेश्वरी को अजितनाथ से संश्लिष्ट कर दिया है । द्विभुज गोमुख यक्ष की भुजाओं में परशु और फल प्रदर्शित है। गरुड़वाहना ( मानव रूप में प्रदर्शित ) चतुर्भुजा चक्रेश्वरी अभयमुद्रा, गदा, चक्र एवं शंख से युक्त है । ऋषभनाथ से सम्बद्ध द्विभुन यक्ष के हाथों में अभयमुद्रा और फल प्रदर्शित है । चतुर्भुज यक्षी की दोनों वाम भुजाएं नष्ट हो चुकी हैं, और दक्षिण भुजाओं में अभयमुद्रा और पद्म दरशाया गया है । द्वितीर्थी मूर्ति के मध्य में सप्त सर्पफणों के छत्र से युक्त पार्श्वनाथ की लघु आकृति उत्कीर्ण है । सिंहासन पर अवस्थित और पार्श्ववर्ती चामरधरों से सेव्यमान मन्दिर : दुन्दुभिवादक एवं उड्डीयमान मालाधर केवल एक ही जिन के जनक है ।
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१९ के दोनों उदाहरणों में त्रिछत्र, साथ प्रदर्शित हैं, जो आश्चर्य
तीन उदाहरणों में पंक्तिबद्ध ग्रहो की द्विभुज आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं ।४ एक मुर्ति ( १० वीं शती ) मन्दिर : १२ के प्रदक्षिणा पथ में सुरक्षित है । उत्कटिकासन में विराजमान सूर्य के दोनों करों में सनाल पद्म प्रदर्शित है । अन्य ६ ग्रह ललित मुद्रा में आसीन है, और उनकी भुजाओं में अभयमुद्रा और कलश प्रदर्शित है । ऊर्ध्वकाय राहु के समीप ही सर्पफण से शोभित केतु की आकृति उत्कीर्ण है, जिसकी दोनों भुजाएं नमस्कार मुद्रा में मुड़ी हुई हैं । मन्दिर : १६ को ग्यारहवीं शती की मूर्ति में केवल पाँच ही ग्रह निरूपित हैं; जिनकी भुजाओं में अभयमुद्रा और कलश प्रदर्शित है । मन्दिर : १२ की दक्षिणी चहारदीवारी की मूर्ति में भी केवल पाँच ही ग्रह आमूर्तित हैं । चार ग्रहों की दाहिनी भुजा से अभयमुद्रा व्यक्त हैं, और बाद जानु पर स्थित है । पांचवीं आकृति राहु की है, जिसके शरीर का केवल अर्ध ऊर्ध्वभाग ही प्रदर्शित है । ग्रह-आकृतियों के नीचे दोनों पैर मोड़कर एक स्त्री बैठी है, जिसकी दोनों भुजाएं नीचे लटक रही हैं । मन्दिर : ४ और १२ की दसवीं -ग्यारहवीं शती की दो मूर्तियों में परिकर में तीन लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं । उल्लेखनीय है
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