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________________ जैन तीर्थंकरो की द्वितीर्थी मूर्तियों का प्रतिमा-निरूपण संग्रहालय की मूर्ति (के० २८) में बायीं ओर की जिन आकृति के यक्ष की तीन अवशिष्ट भुजाओं में पद्म, पद्म और फल प्रदर्शित है। यक्षी अभयमुद्रा, पद्म, पद्म से लिपटी पुस्तिका और फल से युक्त है। दाहिनी ओर की जिन आकृति के यक्ष की भुजाओं में अभय, शक्ति, पुस्तक और फल चित्रित है । यक्षी द्विभुजा है और उसकी दक्षिण भुजा से अभयमुद्रा व्यक्त है, जब कि वाम भुजा जानु पर स्थित है । दोनों जिन आकृतियों के परिकर एवं पाश्वों में कई लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। अधिकांश लघु जिन आकृतियाँ कायोत्सर्गमुद्रा में प्रदर्शित हैं । मन्दिर : ३ की मूर्ति के ऊपरी भाग की लघु जिन आकृति ध्यानमुद्रा में आसीन है, और सप्त सर्प-फणों के छत्र (पार्श्वनाथ ) से युक्त है ( चित्र सं . २)। मूर्ति के परिकर में कुल १८ लघु जिन आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं । आदिनाथ मन्दिर से सटे संग्रहालय की मूर्तियों के परिकर में चार, सात आठ, एवं नौ; और पुरातात्विक संग्रहालय, खजुराहो की मूर्ति ( क्रमांक : १६५३ ) में बारह लघु आकृतियां आमूर्तित हैं। देवगढ़-खजुराहो के समान ही देवगढ़ भी जैन कला का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है, जहां से प्रभूत संख्या में नवीं (८६२ ई०) से बारहवीं शती के मध्य की जैन मूर्तिसम्पदा प्राप्त होती है। नवीं से बारहवीं शती के मध्य को लगभग ५० द्वितीर्थी मूर्तियां देवगढ़ से प्राप्त होती हैं। सभी उदाहरणों में दो जिनों को निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग मुद्रा में साधारप पीठिका या सिंहासन पर सामान्य प्रतिहार्यों सहित आमूर्तित किया गया है। अधिकांश उदाहरणों में तीर्थंकरों के विशिष्ट लांछनों एवं लक्षणों को दरशाया गया है। सभी द्वितीर्थी मूतियों में जिनों की लटकती भुजाओं में विकसित पदम प्रदर्शित है । प्रत्येक जिन आकृति सामान्यतः दो चामरधर सेवकों, दुन्दुभिवादकों, उड्डीयमान मालाधरों, त्रिछत्र एवं अशोक वृक्ष की पत्तियों से युक्त है ।' कुछ उदाहरणों में परिकर में पद्मकलिका या घट धारण करने वाली दो गज आकृतियां भी उत्कीर्ण हैं, जिन पर बैठी पुरुष आकृतियां सामान्यतः कलश से युक्त हैं। कुछ मूर्तियों में चार के स्थान पर केवल तीन ही चामरधर सेवक एवं उड्डीयमान मालाधर आमूर्तित हैं । ऐसे उदाहरणों में दो आकृतियां मूर्ति के छोरों पर और एक दोनों जिनों के मध्य में उत्कीर्ण है। कभी कभी चामरघरों की दूसरी भुजा जानु पर स्थित होने के स्थान पर पुष्प धारण करती है। गुच्छकों के रूप में प्रदर्शित तीर्थंकरों की केशरचना या तो उष्णीष के रूप में आबद्ध है, या फिर पृष्ठभाग में संवारी है। अधिकांश उदाहरणों में मूलनायकों के स्कंधों को छूती लटें भी प्रदर्शित हैं। उल्लेखनीय है कि देवगढ में स्कंधों को छती लटों का प्रदर्शन लगभग सभी जिनों के साथ लोकप्रिय रहा है। देवगढ़ में दो वर्गों की द्वितीर्थी मूर्तियां लोकप्रिय रही हैं। नवों से बारहवीं शती के मध्य की पहले वर्ग की मूर्तियों में दोनों जिनों को समान लक्षणों वाला दरशाया गया है। दोनों जिन आकृतियां स्कंधों को छूती लटो" (सामान्यतः तीन लटें) से युक्त हैं; या फिर शीर्ष भाग में पांच" या सात'२ सर्पफणों के छत्र से शोभित हैं । इस प्रकार पहले वर्ग की मूर्तियों का उद्देश्य ऋषभ, सुपार्श्व या पार्श्व में से किसी एक की द्वितीर्थी का अंकन रहा है। दसरे वर्ग की मूर्तियों में दोनों जिनों के साथ स्वतंत्र लांछनों को उत्कीर्ण किया गया है, और इस प्रकार दो भिन्न तीर्थंकरों को आमूर्तित किया गया है। इस वर्ग की सर्वाधिक मूर्तियां ग्यारहवीं शती की हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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