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सागरमल जैन
__भारतीय नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने की कला पर ही नहीं वरन् उसमें जीवन की कला के साथ एरण की कला पर भी विचार किया गया है । नैतिक चिन्तन की दृष्टि से किस प्रकार जीवन जीना चाहिए यही महत्त्वपूर्ण नहीं है वरन् किस प्रकार मरना चाहिए यह भी मूल्यवान है। मृत्यु की कला जोवन की कला से भी महत्त्वपूर्ण है, आदर्श मृत्यु ही नैतिक जीवन की कसौटी है। जीवन का जीना तो विद्यार्थी के सत्र कालीन अध्ययन के समान है, जबकि मृत्यु परीक्षा का अवसर है। हम जीवन की कमाई का अन्तिम सौदा मृत्यु के समय करते हैं। यहां चूके तो फिर पछताना होता है और इसी अपेक्षा से कहा जा सकता है कि जवन की कला की अपेक्षा मृत्यु की कला अधिक मूल्यवान है। भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार मृत्यु का अवसर ऐसा अवसर है, जब हममें से अधिकांश अपने भावी जीवन का चुनाव करते हैं । गीता का कथन है कि मृत्यु के समय जैसी भावना होती है वैसी ही योनि जीव प्राप्त करता है (१८१५-६)। जैन परम्परा में खन्धक मुनि की कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर सामना करनेवाला महान साधक जिसने अपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन से आने सहचारी पांच सौ साधक शिष्यों को उपस्थित मृत्यु की विषम परिस्थित में समत्व की साधना के द्वारा निर्वाण का अमृतपान कराया वही साधक स्वयं की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार अपने साधनापथ से विचलित हो गया । वैदिक परम्परा में जड़भरत का कथानक भी यही बताता है कि इतने महान साधक को भी मरण बेला में हरिण पर आसक्ति रखने के कारण पशु योनि को प्राप्त होना पड़ा। उपरोक्त कथानक हमारे सामने मृत्यु का मूल्य उपस्थित कर देते हैं । मृत्यु इस जीवन की साधना का परीक्षा काल है। इस जीवन में लक्षोपलब्धि का अन्तिम अवसर और भावीजीवन की कामना का आरम्भ बिन्दु है। इस प्रकार वह अपने में दो जीवनों का मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन की अवश्यम्भावी अंग है। उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुन्दर बनाना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रति युग के प्रबुद्ध विचारक भी समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते हैं । अतः जैन दर्शन पर लगाया जाने वाला यह आक्षेप कि वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता है, उचित नहीं माना जा सकता। वस्तुतः समाधि-मरण पर जो आपेक्ष लगाये जाते हैं उनका सम्बन्ध समाधि-मरण से न होकर आत्महत्या से है। कुछ विचारकों ने समाधि-मरण ओर आत्महत्या के वास्तविक अन्तर को नहीं समझा और इसी
आधार पर समाधि-मरण को अनैतिक कहने का प्रयास किया, लेकिन जैसा कि हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं समाधि-मरण या मृत्युवरण आत्महत्या नहीं है और इसलिए उसे अनैतिक भी नहीं कहा जा सकता । जैन आचार्यों ने स्वयं भी आत्महत्या को अनैतिक माना है, लेकिन उनके अनुसार आत्महत्या समाधि-मरण से भिन्न है।
डा. ईश्वरचन्द्र ने जीवन्मुक्त व्यक्ति के स्वेच्छा-मरण को तो आत्महत्या नहीं माना है लेकिन उन्होंने जैन परम्परा में किये जाने वाले संथारे को आत्महत्या की कोटि में रख कर उसे अनैतिक भी बताया है। इस सम्बन्ध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि स्वेच्छा-मरण का व्रत लेने वाले सामान्य जैन मुनि जीवन्मुक्त एवं अलौकिक शक्ति से युक्त नहीं होते और अपूर्णता की दशा में लिया गया आमरण व्रत (संथारा) नैतिक नहीं हो सकता।