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प्रेम सुमन
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के लिए अभिशाप रहा है । सम्भवतः उद्योतन के समय में भी राजस्थान इससे ग्रसित था । उन्होंने अकाल का इतना सूक्ष्म वर्णन किया है, जो किमी प्रत्यक्षदर्शी के द्वारा ही सम्भव है । उस अकाल में ब्राह्मणों तक की सब क्रियाएं छूट गयीं । एक ब्राह्मण बटुक अनाथ हो गया । अकाल के कारण भिक्षा न मिलने से उसने गल्ला बाजार में गिरे हुए धान के कणों को बीन कर तथा जूठे मिट्टी के सकोरों के खाद्य पदार्थ द्वारा किसी-किसी तरह उस अकाल को व्यतीत किया' । यद्यपि इस अकाल नगरी का नाम ग्रन्थ में माकन्दी दिया गया है, किन्तु वह दशा राजस्थान की ही प्रतीत होती है । सम्भवतः राजस्थान के अकाल का इससे प्राचीन और कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है ।
वाणिज्य की जिस समृद्धि की बात कुवलयमाला में कही गयी है, वह राजस्थान की अपनी थाती है । यहां के व्यापारियों का उस समय देश व विदेश से जो व्यापारिक सम्बन्ध था उसका सही चित्रण कथा के रूप में उद्योतन ने किया है । व्यापारिक नाप-तौल के बहुत प्रमाण भी राजस्थान के व्यापार में व्यहृत होते रहे हैं। आज भी पुराने व्यापारियों में बहुमूल्य की वस्तुओं के मोल-भाव में सांकेतिक भाषा तथा प्रतीकों का प्रयोग होता है । गमछे के नीचे दोनों व्यापारी हाथ छिपा कर सौदा तय कर लेते हैं । उद्योतनसूरि ने मोल-भाव की इस प्रणाली को एक विशिष्ट शब्द दिया हैं- दिण्णाहत्थसण्णा । बिदेशों की मण्डी में, जहाँ राजस्थान के भी व्यापारी जाते थे, मोल-भाव के समय व्यापारी दिण्णाह प्रयोग करते थे । जिस प्रकार दिसावर जाते समय आज राजस्थान के व्यापारी तिथि, दिन एवं
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मिल-भेंट कर व्यापार के लिए समुद्रयात्रा के समय किया है ।
शकुन आदि का विचार करते हैं तथा अपने सब सम्बन्धियों से जाते हैं, उसी तरह का वर्णन उद्योतन ने भी धनदेव की ( पृ० ६७ )
• कहिंचि उच्चट्ठ
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राजस्थान का धार्मिक जोवन कुवलयमाला में प्रतिबिम्बित हुआ है । अनेक धर्मो का यहां आठवीं शताब्दी में अस्तित्व था । वैष्णव, शेव, पौराणिक, जैन धर्म आदि की जिन सामान्य विशेषताओं का सन्दर्भ उद्योतन ने दिया है, उनकी प्रामाणिकता राजस्थान के इतिहास' व साहित्य से भी सिद्ध होती है। जिन देवी-देवताओं का उल्लेख कुव० में है उनमें से अधिकांश की प्रतिमाएं राजस्थान के पुरातत्त्व में उपलब्ध हैं ।
कुवलयमाला में सूर्यपूजा का विस्तृत वर्णन है । उद्योतन जालोर ( भिन्नमाल - ) के निवासी थे । उस समय भिन्नमाल सूर्यपूजा का प्रधान केन्द्र था । बाद में जगत स्वामिन् के नाम से वहां सूर्य की मूर्ति प्रतिष्ठित हुई । कुत्र० में आदित्य, अरविन्दनाथ एवं रवि नाम सूर्य के लिए प्रयुक्त हुए हैं । संकट के समय सूर्य का स्वरण किया गया है ( ६८.१८ ) मंडोर से लगभग आठवीं शताब्दी की सूर्य की प्रतिमा प्राप्त हुई है । अतः राजस्थान में १- किहिंचि विवणि मग्गणिवडिय घण्ण-कणेहिं .. मलय- संलिहणं ।...... वही, पृ० २- दृष्टव्य-लेखक का ग्रन्थ, पृ० १८७-२००
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३ - परियलियं मंड, दिण्णा - हत्थ-सण्णा, विक्कीणयं तं । कुव० ६७.१३ ४- दशरथ शर्मा, राजस्थान द एजेज, पृ० ३६८-९० । ५- वही, पृ० ३८३
ref चोहान डायनेस्टी, पृ० २३५